बिहार के बारे में बोलना या लिखना कष्टदायक है। बिहार उपेक्षा और व्यर्थ के दावों की कहानी है। वर्ष 1947 में भारत के सभी राज्य एक ही शुरुआती रेखा पर खड़े थे। कोई भी राज्य यह नहीं कह सकता कि वह स्वतंत्रता के समय या वर्ष 1950 में पीछे छूट गया था। तब केंद्र और लगभग सभी राज्यों में कांग्रेस का शासन था, इसलिए पूरे देश में एक जैसी नीतियां और कार्यक्रम लागू किए गए। वास्तव में कुछ प्रगतिशील विचारों का प्रयोग सबसे पहले बिहार में किया गया और बाद में उन्हें अन्य राज्यों में भी लागू किया गया- जैसे कि भूमि सुधार और वितरण।

बिहार में कद्दावर नेता थे। यहां प्रशासन का एक कुशल एवं मजबूत ढांचा और प्रतिष्ठित नौकरशाह थे। यहां सबसे ज्यादा उपजाऊ जमीन थी और निरंतर बहती रहने वाली गंगा भी। यह राज्य प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध था और पहली बार स्टील मिलें अविभाजित बिहार में ही स्थापित की गई थीं। देश के चार प्रमुख उच्च न्यायालयों में से एक पटना में था और यहां एक मजबूत न्याय प्रणाली थी। फिर बिहार क्यों पीछे रह गया?

एक विफल राज्य

बिहार के आधिकारिक आंकड़े निराशाजनक हैं। पर्यवेक्षकों का कहना है कि जमीनी स्तर पर स्थिति और भी बदतर है। हालांकि इसके लिए बिहार की हर सरकार जिम्मेदार है, लेकिन नीतीश कुमार 24 नवंबर, 2005 से मुख्यमंत्री हैं (सिवाय उन 278 दिनों के, जब उन्होंने अपने प्रतिनिधि को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाया था)। यानी करीब 20 साल।

इससे पहले बिहार में वर्ष 1990 से 2005 के बीच लालू प्रसाद यादव (या उनकी पत्नी) का शासन रहा। बिहार में पैंतीस साल से कम उम्र के मतदाता केवल एक ही मुख्यमंत्री को जानते हैं- नीतीश कुमार। वर्ष 2025 में बिहार विधानसभा के चुनाव 1990 के दशक या उससे पहले की सरकारों के बारे में नहीं, बल्कि नीतीश कुमार और उनके बीस साल के शासन के आकलन पर आधारित हैं।

वर्ष 2025 में बिहार की अनुमानित जनसंख्या 13.43 करोड़ है। यह भी अनुमान है कि एक से तीन करोड़ नागरिक राज्य से बाहर चले गए हैं। इसके मुख्य कारण बिहार में व्याप्त बेरोजगारी और गरीबी हैं: बिहार में युवा बेरोजगारी दर 10.8 फीसद है। विडंबना यह है कि शिक्षा के बढ़ते स्तर के साथ बेरोजगारी दर बढ़ती जाती है। उद्योगों में केवल 1,35,464 व्यक्ति कार्यरत हैं, जिनमें से केवल 34,700 स्थायी कर्मचारी हैं।

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  • नीति आयोग की वर्ष 2024 की एक रपट के अनुसार, भारत में सबसे ज्यादा गरीबी दर बिहार में है। यहां 64 फीसद परिवार 10,000 रुपए प्रति माह से कम कमाते हैं और केवल चार फीसद परिवार 50,000 रुपए प्रति माह से अधिक कमा पाते हैं। बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआइ) के अनुसार, बिहार सबसे खराब प्रदर्शन करने वाला राज्य (33.76 फीसद) है। अभाव के हर पैमाने- बाल जीवन, मातृ स्वास्थ्य, स्वच्छ रसोई ईंधन और स्वच्छता- इन सभी में बिहार शीर्ष स्थान पर है। ‘शिक्षा की गुणवत्ता’ सूचकांक और ‘सभ्य कार्य एवं आर्थिक विकास’ सूचकांक में भी बिहार सबसे निचले पायदान पर है। (स्रोत: नीति आयोग, बिहार आर्थिक सर्वेक्षण 2024-25, राष्ट्रीय एमपीआइ सूचकांक, एआइसीसी अनुसंधान विभाग)।

बिहार की वर्तमान आर्थिक स्थिति के लिए नीतीश कुमार की सरकार जिम्मेदार है। इस राज्य में देश की नौ फीसद आबादी रहती है, लेकिन यह राष्ट्र के सकल घरेलू उत्पाद में केवल 3.07 फीसद का योगदान देता है। यहां वर्ष 2023-24 में प्रति व्यक्ति आय 32,174 रुपए थी, जो राष्ट्रीय औसत 1,06,744 रुपए का करीब एक-तिहाई है। इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि बिहार की प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत से कम दर से बढ़ रही है और यह अंतर बढ़ता ही जा रहा है।

वर्ष 2024-25 में राज्य का राजकोषीय घाटा जीएसडीपी का 9.2 फीसद था, लेकिन पूंजीगत परिव्यय जीएसडीपी का केवल चार फीसद था, जिससे पता चलता है कि उधार लिए गए संसाधनों का बड़ा हिस्सा राजस्व व्यय और उपभोग में लगाया जाता है। (स्रोत: आरबीआइ, पीआरएस इंडिया बजट विश्लेषण, एआइसीसी अनुसंधान विभाग)।

धर्म और जाति की दीवार

मेरे विचार से संभावनाओं के बावजूद, बिहार अपनी राजनीति के कारण गरीब बना हुआ है। वहां की सरकार और संस्थाएं धर्म एवं जाति के स्वनिर्मित जाल में फंसी हुई हैं। बिहार में धर्म एक बड़ी विभाजक दीवार है। सरकार में भाजपा की उपस्थिति ने शासन के हर पहलू में धर्म को सम्मिलित कर दिया है। गिरिराज सिंह की ‘नमकहराम’ वाली कथित टिप्पणी देखिए कि मुसलमान कृतघ्न हैं और इसलिए उन्हें उनके वोट नहीं चाहिए। यह उस राज्य की बात है, जहां मुसलमानों की आबादी 17 फीसद है (हिंदुओं की 82 फीसद आबादी के मुकाबले)।

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राजनीतिक विमर्श से लेकर लोगों के बीच आम बातचीत में भी जाति हावी है। इसके अलावा, बहुसंख्यक हिंदू समुदाय को ओबीसी, एमबीसी और ईबीसी जैसे वर्गीकरण में विभाजित कर दिया गया है। ईबीसी की 112 जातियों में से चार को ज्यादा महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली माना जाता है। धर्म और जाति वास्तव में भारतीय समाज के प्रतीक हैं, लेकिन इन दोनों पर अत्यधिक जोर बिहार और उसके लोगों की क्षमता को कमजोर कर देता है। सामूहिक इच्छाशक्ति और सहयोग के बजाय, इस तरह का माहौल आपसी संदेह, द्वेष, संघर्ष और कटुता को जन्म देता है।

नीतीश कुमार में कोई बदलाव नहीं

बिहार की राजनीति बदलनी ही होगी। इसे कौन बदलेगा? जवाब अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन यह स्पष्ट है कि नीतीश कुमार वे व्यक्ति नहीं हैं, जो बदलाव के वाहक बनेंगे। वे अपनी बीस साल पुरानी आदतों में जकड़े हुए हैं। इसके अलावा, उनके स्वास्थ्य और अप्रत्याशित व्यवहार को लेकर वास्तविक चिंताएं भी हैं। यह सोचना व्यर्थ है कि नीतीश कुमार खुद को बदलेंगे या बिहार के शासन में कोई आमूल-चूल परिवर्तन लाएंगे। उनका हाल भी वैसा ही होगा, जैसा पंजाब, हरियाणा, ओड़ीशा और महाराष्ट्र में भाजपा के अन्य सहयोगियों का हुआ है। भाजपा ने जिस भी क्षेत्रीय दल को गले लगाया, उसका पतन या अंत हुआ है। जद (एकी) का भाग्य भी शायद इससे अलग न हो।

जाति को घर की चारदीवारी तक ही सीमित रखना चाहिए। धर्म का काम पूजा स्थलों पर है। राजनीति या शासन में इनका कोई स्थान नहीं होना चाहिए। बिहार के लोग जब इस सच्चाई को समझेंगे, तो वे अपने ही बनाए जाल से बाहर निकलने के लिए संघर्ष करेंगे।