बिहार की जनता ने अपना फैसला सुना दिया है। राजग को 202 सीटें और महागठबंधन को 35 सीटें मिली हैं। सभी नागरिकों को इस निर्णय को स्वीकार करना चाहिए। नई सरकार हमारी शुभकामनाओं की पात्र है, चाहे मुख्यमंत्री कोई भी हो। वैसे शुभकामनाओं की सबसे ज्यादा हकदार बिहार की जनता है। बिहार में चुनावी गतिविधियों के प्रकाशन एवं प्रसारण में मीडिया ने खुद को गौरवान्वित नहीं किया है। कुछ मीडिया संस्थान (अखबार और टेलीविजन समाचार चैनल), जिन्होंने थोड़ा अलग रास्ता अपनाया था, वे भी इस भीड़ में शामिल हो गए।

विभिन्न क्षेत्रों में मौजूद पत्रकार भी एक स्वर में बोल रहे थे: लोग जाति के आधार पर वोट कर रहे हैं; नीतीश कुमार के खिलाफ कोई सत्ता-विरोधी लहर नहीं है; तेजस्वी यादव चुनाव प्रचार में ऊर्जा तो लाए, लेकिन अपने पारंपरिक आधार से आगे अपनी नीतियों और विचारों का विस्तार नहीं कर पाए; प्रशांत किशोर ने मतदाताओं के सामने नए विचार रखे, लेकिन उन्हें एक नौसिखिया और अप्रमाणित माना जा रहा है; नरेंद्र मोदी मतदाताओं से तत्काल जुड़ जाते हैं; राहुल गांधी अपने मुख्य मुद्दे वोट चोरी और बेरोजगारी वगैरह पर अड़े रहे, आदि-आदि।

नतीजे मीडिया के शोरगुल को सही साबित करते दिख रहे हैं। एकमात्र नया गीत था- मतदान से पहले, मतदान के दौरान और मतदान के बाद हर घर की एक महिला को दस हजार रुपए की नकद राशि देना।

निचले पायदान पर

बिहार के लोगों की याददाश्त बहुत गहरी है। उन्होंने लालू प्रसाद (या उनकी पत्नी) की 15 साल की सरकार (1990-2005) को याद किया और तेजस्वी यादव को बेवजह दोषी ठहराया, जो उस समय मुश्किल से 16 साल के थे, जब सरकार सत्ता से बाहर हुई थी। उन्होंने नीतीश कुमार (या उनके प्रतिनिधि) की 20 साल की सरकार को भी याद किया, लेकिन ऐसा लगता है कि उनकी तमाम नाकामियों के प्रति लोगों में कोई नाराजगी नहीं है।

क्या बिहार गरीब है? क्या यहां बड़े पैमाने पर बेरोजगारी है? क्या करोड़ों लोग नौकरी की तलाश में दूसरे राज्यों में पलायन कर रहे हैं? क्या बहुआयामी गरीबी लोगों के एक बड़े वर्ग को प्रभावित करती है? क्या शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा की स्थिति दयनीय है? ‘शराबबंदी’ के बावजूद क्या शराब खुलेआम उपलब्ध है? हर सवाल का जवाब ‘हां’ है। अगर ऐसा है, तो लोगों ने हाल ही में संपन्न चुनावों में जिस तरह से मतदान किया, उसका कोई स्पष्ट कारण नजर नहीं आता है। एक लेख में शेखर ने व्यंग्यात्मक लहजे में लिखा कि ‘बिहार आज जो सोचता है, वह परसों भी वही सोचता था।’ जो भी हो, इसके पीछे शायद कुछ अच्छे कारण हो सकते हैं, जो चुनाव बाद के सर्वेक्षणों में सामने आएंगे।

मैं बिहार के लोगों से चंपारण युग की भावना को पुन: खोजने का आग्रह करता हूं। छात्रों को अयोग्य शिक्षकों; पुस्तकालयों, प्रयोगशालाओं और शिक्षकों से रहित कालेजों एवं स्कूलों; पर्चाफोड़; परीक्षाओं में सामूहिक नकल; हेरफेर किए गए परिणाम; बेकार डिग्रियां; और हास्यास्पद लोक सेवा भर्ती को चुपचाप बर्दाश्त नहीं करना चाहिए। युवाओं को अपने राज्य में नौकरियों की कमी को चुपचाप स्वीकार नहीं करना चाहिए और दूर-दूर ऐसे राज्य में किसी भी नौकरी के लिए नहीं जाना चाहिए, जहां के लोग, भाषा, खान-पान और संस्कृति उनके लिए अपरिचित हों। माता-पिता और परिवारों को यह भाग्य मानकर स्वीकार नहीं करना चाहिए कि पुरुष हमेशा उनसे दूर रहेंगे। बिहार के लोगों को अब अपने पिता और दादी की तरह नहीं रहना चाहिए।

संगठन ही कुंजी

स्पष्ट तौर पर विपक्षी राजनीतिक दल जनता के सामने एक वैकल्पिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करने और बदलाव की इच्छा जगाने में विफल रहे। प्रशांत किशोर ने ऐसा किया, लेकिन वे कई कमियों से घिरे रहे। अगर यह सच है, तो इसका दोष पूरी तरह से विपक्षी राजनीतिक दलों पर है। केवल सक्षम नेता और संसाधन ही पर्याप्त नहीं हैं; उनके पास जमीनी स्तर पर मजबूत पकड़ और एक सशक्त संगठन होना चाहिए। चुनाव जीतने में पार्टी के नेताओं या उम्मीदवारों से ज्यादा संगठन और कार्यकर्ता की भूमिका अहम होती है।

एक नियम के रूप में- कुछ अपवादों को छोड़कर- हर चुनाव एक ऐसी पार्टी या पार्टियों के गठबंधन द्वारा जीता जाता है, जिसके पास संगठनात्मक शक्ति होती है, जो मतदाताओं को अपने पक्ष में मतदान करने के लिए प्रेरित कर सकता है। बिहार के नतीजों को देखते हुए ऐसा लगता है कि वहां पर भाजपा और उसके सहयोगी जद (एकी) के पास वह संगठनात्मक शक्ति थी।

दायित्व किसका

चुनाव आयोग की भूमिका सवालों के घेरे में रही। बिहार चुनाव से कुछ दिन पहले आयोग ने मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण की घोषणा की- केवल बिहार में- और बहस को भटका दिया। मतदान फीसद में वृद्धि आंशिक रूप से इसलिए हुई, क्योंकि मतदाता सूचियों में कुल मतों की संख्या कम थी, और इसका श्रेय विशेष गहन पुनरीक्षण को जाता है।

चुनाव की तारीखों की घोषणा से दस दिन पहले प्रधानमंत्री की ओर से मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना के एलान पर चुनाव आयोग ने आंखें मूंद लीं। महिलाओं के खाते में दस हजार रुपए का हस्तांतरण घोषणा से पहले शुरू हुआ और चुनाव प्रचार के दौरान जारी रहा; चुनाव आयोग ने इसे किसी भी स्तर पर नहीं रोका। यह धन हस्तांतरण मतदाताओं को एक खुली रिश्वत थी। तमिलनाडु में चुनाव आयोग की कार्रवाई से तुलना कीजिए। वहां किसानों के लिए नकद सहायता योजना मार्च 2003 में शुरू की गई थी; जब 2004 में लोकसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा हुई, तो यह योजना बंद कर दी गई। वर्ष 2006 से एक मुफ्त रंगीन टीवी योजना लागू थी; 2011 में जब विधानसभा चुनावों की घोषणा हुई, तो इस योजना को अचानक स्थगित कर दिया गया (स्रोत: द हिंदू)।

बिहार में चुनाव आयोग का पक्षपातपूर्ण आचरण स्पष्ट था। इस सबके बावजूद, यह मानना होगा कि राजग ने शानदार जीत हासिल की। मुझे इस बात की ज्यादा चिंता है कि अगले पांच वर्षों में राज्य सरकार को उसके वादों और जवाबदेही के लिए कौन जिम्मेदार ठहराएगा। बिहार की जनता ने राज्य विधानसभा में एक मजबूत विपक्ष के लिए वोट नहीं दिया है, और इसी वजह से जिम्मेदारी फिर से जनता पर ही आ जाती है। यह मत के अधिकार के इस्तेमाल से भी बड़ी जिम्मेदारी है।