भारतीय वैचारिकी में ‘यक्ष-प्रश्न’ ऐसी विरासत है जो हमें अपने पुरखों से हासिल हुई है। पूछे गए प्रश्न के उत्तर की योग्यता ही ‘धर्मराज’ की योग्यता तय करती थी। प्रश्न चाहे कितने भी असहज हों, धर्म पर भी राज करने वाला उसे नकार नहींं सकता था। आज की पत्रकारिता की जेन ‘जी’ (यहां पर ‘जी’ से तात्पर्य सत्ता के आगे जी, जी, जी करने से है) सत्ता के आगे न सिर्फ खुद ताली बजा रही है बल्कि पत्रकार बनने के आकांक्षी युवाओं को भी यही करने के लिए प्रेरित कर रही है। अभी तक सरकारी कार्यक्रमों में आगे की पंक्ति में मीडिया के लिए सीटें रिक्त रहती थीं। इन सीटों पर बैठे पत्रकार सरकार के कहे पर ताली नहीं बजाते थे, सख्त सवाल पूछते थे। अब हाल यह है, कि सत्ता के प्रतिनिधि के एक वाक्य पूरा होने के पहले ये इतनी ताली बजा देते हैं, कि मंच पर बैठे व्यक्ति को आगे बोलने की जरूरत ही नहीं होती। जनसरोकारों के सख्त सवाल पर नेताजी अपने परिवार का कोई चुटकुलानुमा उदाहरण दे देते हैं, जिसके एवज में एंकर कानफोड़ू तालियां बजाते हैं। तालीमार ‘पत्रकार’ पर बेबाक बोल।
झूठ कहने लगा सच से बचने लगा
हौसले मिट गए तजरबा रह गया
-हिलाल फरीद
कथित जेन जी का यह दौर ‘बूमर’ (वरिष्ठों) के लिए अतीतव्यामोह जैसी स्थिति भी ले आया है। किसी भी देश की नई पीढ़ी कैसा व्यवहार करेगी यह इस पर निर्भर करता है कि वरिष्ठों ने उसे विरासत में क्या दिया? विरासत में सिर्फ धन-संपत्ति, जमीनें ही नहीं दी जाती हैं। विरासत में सोच, व्यवहार और राजनीतिक माहौल भी दिए जाते हैं। अब वक्त आ गया है, जब हम विरासत में दिए जा रहे सांस्कृतिक, बौद्धिक व राजनीतिक व्यवहार पर विमर्श करें।
अपने अतीतव्यामोह के तहत मैं सबसे पहले अपने स्कूल के शिक्षक से माफी मांगना चाहता हूं। अतीत में जाकर माफी मांगने की वजह, वर्तमान का वह वृत्त है जिसके केंद्र में आत्ममुग्धता है। वृत्त की परिधि पर खड़े हैं सवाल, तर्क।
मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: किताबी हिसाब
अतिशयोक्ति में कहूं तो आज के संदर्भ में जब महाभारत लिखी जाएगी तो शायद उसमें से ‘यक्ष’ का किरदार विलोपित कर दिया जाएगा। आज की राजनीतिक महाभारत में ‘यक्ष’ एक प्रतिकूल किरदार है। अब बात आज के यथार्थ पर। कुछ अरसा पहले एक महाविद्यालय के जन संचार विभाग में अतिथि वक्ता के रूप में पहुंचा। मैं समय से पहले पहुंच गया था। सेमिनार कक्ष में कार्यक्रम की तैयारी चल रही थी। किसी को अपनी जानकारी दिए बिना मैं पीछे की कुर्सी पर बैठ गया। तैयारी के तहत शिक्षक विद्यार्थियों को बता रहे थे कि भाषण से पहले, दौरान और बाद में तालियां कैसे बजानी हैं।
पत्रकारिता के विद्यार्थियों का ‘तालीमार’ वाला प्रशिक्षण देख कर मेरा मन क्षोभ से भर उठा। मंच पर बोलने के दौरान हर पूर्वनियोजित ताली मुझे तंज लग रही थी। इसके प्रभाव में मैंने वक्तव्य के दौरान उस शिक्षक की कठोर आलोचना कर दी जो पत्रकारिता के विद्यार्थियों को दर्शक बनने का प्रशिक्षण दे रहे थे। कार्यक्रम के बाद शिक्षक ने आकर मुझसे माफी मांगी।
मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: मैदान से बाहर देशप्रेम
आज जब हर कोई जेन जी का जाप कर रहा है, इस पीढ़ी की प्रवृत्तियों का वर्णन कर रहा है तो मुझे शिक्षक द्वारा दिए जा रहे ‘तालीमार’ का प्रशिक्षण याद आ जाता है। जनसंचार संस्थान के वह शिक्षक अकेले नहीं हैं। उनके जैसा शिक्षक तालीमारों की कई खेप दृश्य पत्रकारिता के क्षेत्र में उतार चुका है।
इन दिनों खबरों के चैनलों पर बहस वाले खंड में युवाओं को दर्शकों के तौर पर बैठाया जाता है। ज्यादातर बहसों में किसी कालेज या जनसंचार संस्थान के विद्यार्थियों को दर्शक के तौर पर बुलाया जाता है। कार्यक्रम शुरू होने के पहले पर्दे के पीछे इन युवा दर्शकों को क्या निर्देश दिए जाते हैं, सवालों की पर्ची दी जाती है या नहीं, यह लिखने से परहेज करूंगा। जो परदे पर दिखाया गया, उससे पाठक परदे के पीछे का खुद अंदाजा लगा लें।
मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: संतति संनाद
एंकर विषयवस्तु के साथ सत्ता पक्ष के प्रतिनिधि को बोलने का मौका देते हैं, और उनका भाषण खत्म होते ही युवा दर्शकों को देख कर इतनी जोर से ताली बजाता है कि युवाओं को लगता है, ताली बजाना, दर्शक दीर्घा में बैठने की पहली शर्त है। एंकर द्वारा विपक्ष के प्रतिनिधियों को बीच में रोक कर उनके तर्कों से नाराजगी जताई जाती है। युवाओं को प्रशिक्षण मिल जाता है कि विपक्ष के बोले पर ताली नहीं बजानी चाहिए। इसके बाद एक तालीमय माहौल शुरू होता है। एंकर मैच के पक्षपाती रेफरी की तरह सत्ता पक्ष के लिए तालियों को अनिवार्य बता चुका है तो फिर सत्ता पक्ष के प्रतिनिधि के एक वाक्य में बीस शब्द पूरे होने से पहले चालीस तालियां बज चुकी होती हैं।
बारी आती है युवा दर्शकों के सवाल पूछने की। अगर किसी युवा ने तय प्रारूप के उलट सवाल पूछ दिया, सत्ता पक्ष को संकट में डाल दिया तो उसके मुंह के पास से तुरंत माइक हटा कर कहा जाता है, अब चलते हैं दूसरे श्रोता के पास। जो भी युवा एंकर के हिसाब से सवाल पूछेगा उसके लिए इतनी तालियां बजाई जाएंगी कि वह भविष्य में शायद ही कभी प्रतिपक्ष का हिस्सा बनना पसंद करेगा। उसे प्रशिक्षण मिल चुका है कि पक्ष की मुखालफत करने वालों के मुंह के सामने से माइक ही हटा लिया जाता है। इस प्रशिक्षण के बाद वह भविष्य में पत्रकार नहीं, पर्चीकार व तालीमार बनेगा। उसे सवाल पूछने के लिए पर्ची का इंतजार होगा। अपनी एक-एक बात वह पर्ची देख कर कहेगा, जिसे आधुनिक तकनीकी व सम्मानजनक भाषा में ‘टेलीप्रांप्टर’ कहते हैं।
मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: दिल पर पड़त निशान
राजनेताओं को भी पर्चीकारों और तालीमारों की इतनी आदत हो गई है कि सामने किसी पत्रकार को देखते ही उन्हें लगता है कि यह कोई रूप बदल कर आया जेन जी है जो तख्तापलट करना चाहता है।
पिछले दिनों बिहार में हुए एक राजनीतिक साक्षात्कार का वीडियो वायरल हुआ था। वह पत्रकार दिल्ली नहीं, बिहार का था। (अस्वीकरण: दिल्ली के नहीं होने का मतलब स्थानीय होना नहीं होता। बिहार के पत्रकार को नोएडा के टीवी चैनल से स्थानीय पत्रकार कहा जाता है। जरा सोचिए अगर बिहार में कहा जाए कि दिल्ली के फलां स्थानीय पत्रकार…उफ्फ…सोचने का क्या फायदा? बिहार में दिल्ली के बाहर का हर पत्रकार से लेकर साहित्यकार स्थानीय ही रहेगा।)उस पत्रकार के पहले ही कष्टकारी सवाल से सत्ता पक्ष की नेता असहज हुईं और उसने पत्रकार को डांटना शुरू कर दिया कि वह दिल्ली के शीर्ष नेता के नाम के साथ ‘जी’ क्यों नहीं लगा रहा। पत्रकार उन्हें समझाते थक गया कि ‘जी’ लगाना पार्टी कार्यकर्ताओं का ‘प्रोटोकाल’ है, हमारा नहीं। पत्रकारिता का पेशा हर नाम को एक समान देखता है। महसूस हो रहा कि कुछ समय बाद ऐसे पत्रकार सिर्फ किस्से में मिला करेंगे। हां, जनसंचार संस्थानों में इन किस्सों को वर्जित जरूर कर दिया जाएगा।
मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: अंगरक्षक
अब जिन युवाओं को तालीमार के तहत पर्चीकार बनने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है, वे शायद सत्ता पक्ष के नेता के नाम के आगे तीन-चार बार ‘श्री’ व नाम के बाद एक दर्जन ‘जी’ लगाने से नहीं हिचकेंगे। हो सकता है कि जिस तरह प्राचीन काल में किसी सम्राट का नाम लेने के पहले पंद्रह-बीस उपाधियां लगाई जाती थीं नेता जी के नाम के पहले एंकर वह भी लगाना शुरू कर दें और इसे पत्रकारिता का सामान्य नियम मान लिया जाए।
चैनलों के एंकर व माहौल से प्रभावित होकर सत्ताधारी नेता भी अपनी प्रेस कांफ्रेंस में टीवी कार्यक्रम जैसा तालीमार खोजने लगे हैं।
पिछले दिनों एक केंद्रीय मंत्री ने प्रेस सम्मेलन में पत्रकारों से पूछ दिया कि आप में से जिन लोगों को लगता है कि इस सरकार में सुधार हुए वे हाथ खड़े कर दें। सुखद रहा कि ये पत्रकार किसी जनसंचार माध्यम के पढ़े नहीं हुए थे। इसलिए बहुत कम हाथ खड़े हुए। मंत्री जी ने पत्रकारों के बीच अपना जनमत फेल होते देख कर कहा, ‘बड़े ही कंजूस हैं आप पत्रकार लोग।’
मुझे भय है कि मौजूदा शिक्षकों व एंकरों से शिक्षित व प्रभावित पत्रकारों की भविष्य की खेप आ जाएगी तो सबके हाथ खड़े देख कर, सरकार के पक्ष में तालियां सुन कर मंत्री कहेंगे, ‘कितने उदार तालीमार हैं आप’। क्या आप सब सुन पा रहे हैं वो तालियां? ये तालियां क्या आपको भी उतना ही डरा रही हैं जितना मुझे?