लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी मुखर हुए हैं। संघ प्रमुख मोहन भागवत के अंदाज में बौद्धिक संकेतों के जरिए तेवर दिखा रहे हैं। पिछले दिनों नागपुर के एक कार्यक्रम में खुलासा किया कि उन्हें विपक्ष की तरफ से लोकसभा चुनाव से पहले और बाद में भी प्रधानमंत्री पद का प्रस्ताव मिला था। जिसे उन्होंने ठुकरा दिया। उन्होंने दिल्ली में एक टीवी चैनल के कार्यक्रम में भी इसकी पुष्टि की। प्रस्ताव ठुकराने की वजह वैचारिक प्रतिबद्धता बताई। लगे हाथ बोल दिया कि प्रधानमंत्री बनने की उनकी कोई महत्त्वाकांक्षा नहीं है। वे इस पद के योग्य होंगे तो जरूर बन जाएंगे। प्रस्ताव विपक्ष के किस नेता ने दिया, गडकरी ने नहीं बताया।

नागपुर से नाता रखने वाले गडकरी को आरएसएस प्रमुख का खास माना जाता है। अपने इन्हीं रिश्तों के दम पर वे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने थे। इसी महीने दो और घटनाओं को लेकर गडकरी चर्चा में रहे। प्रधानमंत्री के वर्धा के कार्यक्रम में वे नदारद थे। फिर विधानसभा चुनाव की तैयारी के मद्देनजर अमित शाह ने विदर्भ भाजपा की नागपुर में बैठक की तो उसमें भी गडकरी नहीं दिखे। गडकरी को जेपी नड्डा ने जब पार्टी के संसदीय बोर्ड से बाहर किया था तो वे खामोश रहे थे क्योंकि तब लोकसभा में भाजपा का रिकार्ड बहुमत था। बदले सुर का कारण साफ है कि यह सरकार किसी एक नेता की न होकर राजग की है।

सस्ता रोए सौ बार…

तिरूपति के लड्डू पर अभी सियासी घमासान जारी है। मगर आम लोगों के बीच सवालतलब वह दाम है जिस पर घी खरीदा गया। देश के किसी भी पशु पालक, दुग्ध उत्पादों के कारोबारी से पूछ लीजिए, इस दर को सुनते ही दांतों तले उंगली दबा लेगा। दूध से दही बनाकर निकाला गया शुद्ध देशी घी किसी भी हालत में आठ सौ रुपए किलो से कम पर मिल ही नहीं सकता। डेयरी के क्रीम से बनने वाले घी की लागत भी सात सौ रुपए किलो के आसपास बैठती है। देशी घी के नाम पर ज्यादातर डेयरियां यूरोप के देशों से ‘बटर आयल’ का आयात कर घी बना और बेच रही हैं। पर ऐसा घी भी छह सौ रुपए किलो से कम नहीं मिल सकता। तीन सौ बीस रुपए किलो के हिसाब से देशी घी तो मिलने से रहा। इसलिए सवाल तो उस सरकारी मानक संस्था पर भी है, जिसने इतने सस्ते घी को प्रमाणित भी कर दिया।

कंगना और किसान

कंगना रनौत जिस नजरिए से किसान आंदोलन को देखती आई हैं वह भाजपा के लिए बड़ी मुसीबत बन चुका है। किसान आंदोलन पर पहले ही विवादास्पद बयान देने वाली कंगना ने वकालत कर दी कि देश में कृषि कानूनों को वापस लिया जाना चाहिए। इस बयान के बाद से ही भाजपा के बड़े नेता इस सवाल पर किसी भी जवाब से बचते नजर आ रहे हैं। अब तक यह सवाल हरियाणा के सियासी नेताओं के आसपास घूम रहा है। अब तो हरियाणा के बाहर भी यह सवाल सबके सामने खड़ा हो जाता है। नेताओं को डर है कि इस मुद्दे को फिर से हवा लगी तो भाजपा को बड़ा नुकसान हो सकता है। सवाल यह भी है कि भाजपा कंगना का वैचारिक राजनीतिकरण करने में नाकाम क्यों हो रही है?

पंजाब में पस्त

सुनील जाखड़ के इस्तीफे की खबर ने खेमों में बंटी पंजाब भाजपा की अंदरूनी हालत को उजागर कर दिया। जाखड़ गुरुवार को जब चंडीगढ़ में हुई पंजाब भाजपा की अहम बैठक में नहीं दिखे तो अटकलबाजी तेज हो गई। शुक्रवार को खबर आई कि उन्होंने पंजाब भाजपा अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया है। बेशक सारे दिन उन्होंने मीडिया से दूरी बनाए रखी। हालांकि पार्टी के दूसरे नेता इस्तीफे की खबर को निराधार बताते रहे। जाखड़ भाजपा में दो साल पहले कैप्टन अमरिंदर सिंह के साथ कांगे्रस छोड़कर आए थे। वे जाट हैं पर सिख नहीं। उनके पिता बलराम जाखड़ कांगे्रस के कद्दावर नेता थे और लोकसभा अध्यक्ष रहे।

पिछला लोकसभा चुनाव भाजपा ने अकाली दल से अलग अकेले लड़ा था। उसे 13 में से एक भी सीट नहीं मिल पाई। जबकि 2019 में गठबंधन में रहते दो सीटें मिली थी। जाखड़ पार्टी के किसान आंदोलन विरोधी रुख से असहमत थे। वे अकाली दल से गठबंधन के पक्षधर थे। अपनी अनदेखी से दुखी होकर उन्होंने पहले भी इस्तीफे की पेशकश की थी। लेकिन, लोकसभा चुनाव हार जाने के बावजूद रवणीत सिंह बिट्टू को केंद्र में मंत्री बना दिया गया तो जाखड़ की उम्मीदों पर पानी फिर गया। नाम के अध्यक्ष बने रहना उनकी फितरत में नहीं सो फिर कर दी इस्तीफे की पेशकश। पंजाब को लेकर भाजपा की राह अभी तक साफ नहीं होने का भी पता चलता है जाखड़ जैसे परिपक्व नेता की नाराजगी से।

सैलजा का सलीका

हरियाणा विधानसभा चुनाव में अति आत्मविश्वासी हो रही कांग्रेस को कद्दावर दलित नेता सैलजा ने सकते में कर रखा है। सैलजा केंद्र में मंत्री और पार्टी की सूबेदार रह चुकी हैं। उन्होंने एक हफ्ते तक खुद को चुनाव प्रचार से दूर रखा। मनोहर लाल खट्टर ने तो उन्हें भाजपा में शामिल होने का न्योता दे दिया। कांग्रेस पर दलित नेताओं को अपमानित करने के आरोप लगे। हरियाणा में दलितों की आबादी करीब 22 फीसद है। जाटों के बाद उन्हीं के मतों का सबसे ज्यादा महत्त्व है। सो कांगे्रस के आलाकमान की बेचैनी बढ़ गई। चर्चा है कि खुद राहुल गांधी ने उनसे वार्ता की। उसके बाद ही सैलजा ने यह बयान देकर कि वे कांगे्रस की वफादार कार्यकर्ता हैं, विरोधियों की बोलती बंद की।

सैलजा के जन्मदिन पर 24 सितंबर को खुद पार्टी अध्यक्ष खरगे ने उनसे मिलकर बधाई दी। सैलजा की नाराजगी टिकटों के बंटवारे में हुई अपनी उपेक्षा को लेकर है। भूपिंदर सिंह हुड्डा से उनका इस समय छत्तीस का आंकड़ा है। पार्टी में फूट न पडे़, इसके लिए आलाकमान ने चुनाव पूर्व किसी को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित नहीं किया है। पर किससे छिपा है कि हरियाणा में कांगे्रस हुड्डा की जेबी पार्टी बन चुकी है।

संकलन : मृणाल वल्लरी