पीएम नहीं सेवक हूं। मैं सीएम नहीं सेवक हूं…।’ बीते दस महीनों में कितनी बार प्रधानमंत्री मोदी और बीते एक महीने में कितनी बार केजरीवाल ने दोहराया होगा। अब तो उत्तर प्रदेश की सड़कों पर चस्पां मंत्रियों के पोस्टर में भी सेवक लिखा जाता है। क्या वाकई राजनीति बदल गई, या फिर सत्ता पाने के बाद हर नेता बदल जाता है।

यह सवाल देश में हर 15 बरस में आंदोलन के बाद सत्ता परिवर्तन, और फिर आंदोलन की मौत से भी समझा जा सकता है। आंदोलन करते हुए सत्ता पाने के तरीके से भी।

आजादी के बाद से किसी एक नीति पर देश सबसे लंबे वक्त तक चल पड़ा तो वह मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधार तले देश को बाजार में बदलने का सपना है। 1991 से 2011 तक के दौर में देश के हर राजनीतिक दल ने सत्ता की मलाई चखी। हर धारा को आवारा पूंजी बेहतर लगी।

हर किसी ने अलग-अलग ट्रैक का जिक्र कर मनमोहन के पूंजीवाद का ही रास्ता पकड़ा। विकास के नाम पर जमीन हथियाने का खुला खेल शुरू किया। बहुसंख्य जनता हाशिए पर पहुंची और इन बीस बरस में देश में सबसे ज्यादा घोटाले हुए।

इस हाल से खिन्न देश ने अण्णा आंदोलन को जन्म दिया तो फिर अण्णा की ही भाषा राजनीतिक भाषण का हिस्सा बनी। इसे मोदी ने खूब भुनाया और केजरीवाल ने इसी आर्थिक सुधार तले हाशिए पर फेंके जा चुके लोगों से खुद को जोड़ा। लेकिन सवाल तो सत्ता के ना बदलने और आंदोलन के जरिए सत्ता परिवर्तन की उस लहर का है जिसे देश बार-बार जीता है और फिर थक कर सो जाता है।

संसदीय राजनीति के पन्नों को पलटें तो सड़क पर आंदोलन कर ही वीपी सत्ता तक पहुंचे। 1989 में लुभाऊ नारे लगे। लेकिन किसे पता था महज दो बरस के भीतर मंडल-कंमडल का संघर्ष भ्रष्टाचार के खिलाफ बने देश के माहौल को ही उलट देगा।

जनता को वीपी ने जिस तरह सत्ता में आने के बाद हर दिन उल्लू बनाया उसमें अब के नेता तो टिक भी नहीं सकते। वीपी से ठीक पहले जेपी को याद कीजिए। वीपी से 15 बरस पहले जेपी भी भ्रष्टाचार के खिलाफ ही आंदोलन करने गुजरात पहुंचे थे।

उसके बाद बिहार। और फिर संपूर्ण क्रांति का सपना। लेकिन जेपी के आंदोलन के बाद सारा संघर्ष सत्ता में ही सिमट गया। शायद जनता ने हमेशा इसे महसूस किया इसीलिए तीन दशक तक अपनी मुट्ठी बंद कर रखी। 1984 से 2014 तक कभी किसी को बहुमत की ताकत नहीं दी। लेकिन जब दी तो क्या सीएम और क्या पीएम। हर को जनता ने बहुमत की ताकत दी।

लेकिन सत्ता का मिजाज ही कुछ ऐसा निकला कि हर कोई सत्ता को कवच बनाकर जनता को कुचलने में लग गया। कोई नया रास्ता किसी दौर में किसी के पास था नहीं। जो नए रास्ते थे वे भरे पेट वालों के लिए और जश्न को नए-नए तरीके से मनाने के थे। वजह यही है कि नरेंद्र मोदी राउरकेला में छाती ठोंक कर अपनी उपलब्धि बताने के लिए मनमोहन की लकीर पहले खींचते हैं।

जबकि सवाल खुद की उपलब्धि बताने का नहीं है बल्कि सवाल वादों को पूरा कर जनता की मुश्किलों को खत्म करने का है। इसीलिए जनता को लगता है कि उसे हर दिन अप्रैल फूल बनाया जा रहा है।

अब के दौर में बदलाव की राजनीति से खुश न हों क्योंकि जो पहले कभी नहीं हुआ वह इतिहास मोदी ने भी रचा और केजरीवाल ने भी। आजादी के बाद पहली बार जनता ने किसी गैर कांग्रेसी को इतनी ताकत के साथ पीएम बनाया कि वह जो चाहे सो नीतियां बना सकता है। और मोदी के सत्ता संभालने के महज नौ महीने के भीतर ही दिल्ली में केजरीवाल को इतनी सीटे मिल गईं कि वे दिल्ली को जिस तरफ ले जाना चाहें ले जा सकते हैं।

मोदी सरकार के वादों की फेरहिस्त की हवा दस महीने पूरे होते-होते निकलने लगी और केजरीवाल तो पहले महीने ही हांफते हुए नजर आए। तो क्या नेता सत्ता पाते ही जनता को अप्रैल फूल बना देता है या फिर सत्ता का चरित्र ही ऐसा होता है कि जनता को हर वक्त अप्रैल फूल बनना ही पड़ता है। सवाल सिर्फ मोदी और केजरीवाल का नहीं है। केजरीवाल की तर्ज पर बहुमत हासिल कर सत्ता संभाल रहे दूसरे नेता कर क्या रहे हैं।

सीएम की फेरहिस्त याद कीजिए तो यूपी में अखिलेश यादव को, राजस्थान में वसुंधरा राजे, ओड़िशा में नवीन पटनायक, छत्तीसगढ़ में रमन सिंह, मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान को याद करना होगा। इससे पहले सूची में एक नाम असम के सीएम रहे प्रफुल्ल मंहत का भी याद रखना होगा। 33 बरस की उम्र में मंहत तो सीधे कॉलेज हॉस्टल से मुख्यमंत्री निवास पहुंचे थे। केजरीवाल तो भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन करते हुए लोकपाल जपते हुए मुख्यमंत्री बने, लेकिन मंहत तो असम में उल्फा की संगीनों के साये के आंदोलन के समांतर छात्र आंदोलन करते हुए सीएम बने।

यह अलग बात है कि केजरीवाल को 70 में से 67 सीटे मिलीं और महंत को 126 में से 67 सीटें मिली थीं। लेकिन असम में खासे दिनों बाद किसी एक दल को पूर्ण बहुमत मिला था तो महंत से उम्मीद भी काफी थीं। लेकिन अपने सबसे करीबी फूकन से ही मंहत ने राजनीतिक तौर पर दो-दो हाथ वैसे ही किए जैसे दिल्ली में केजरीवाल, आंदोलन के साथी प्रशांत भूषण से कर रहे हैं।

पांच साल महंत की सरकार भी चली। और आने वाले पांच साल तक केजरीवाल की सरकार को भी कोई गिरा नहीं पाएगा। लेकिन भविष्य का रास्ता जाता किधर है, इसे लेकर महंत फंसे तो 1990 में चुनाव हार गए और 1996 में दुबारा सत्ता में लौटे तो राजनीतिक तौर पर इतने सिकुड़ चुके थे कि दिल्ली से लेकर असम की सियासी चालों को ही चलने में वक्त गुजारते चले गए। आज की तारीख में सिवाय एक चुनावी क्षत्रप के अलावा कोई पहचान नहीं है उनकी।

बहरहाल, जनता की उम्मीदों ने कुलांचें तो केजरीवाल के जरिए दिल्ली से आगे देश के लिए भर ली हैं। सवाल अब यही उभर रहा है कि क्या केजरीवाल भी वैसे ही राजनीतिक हो गए जैसे बाकी राज्यों में क्षत्रप बहुमत के बाद जनता से कटते हुए सिर्फ अपना जोड़-घटाव देखते हैं। यानी जिस रास्ते मोदी को चलना है, जिस रास्ते केजरीवाल को चलना है, वह बहुमत मिलने के बाद नेता होकर हासिल करना मुश्किल है।

वजह यह कि हर राज्य का नेता सीएम बनते ही सत्ताधारी होकर जिस तरह अपने राज्य को संवारने निकलता है और आंदोलन के पीएम बनकर जिस तरह प्रधानमंत्री सिर्फ बोलते हैं, उसमें नेतागिरी ज्यादा और जन सरोकार खत्म हो जाते हैं। इसलिए देश हर बार आंदोलन से सपने जगाता है और सत्ता से सपने चूर-चूर होते देखता है।

पुण्य प्रसून वाजपेयी (टिप्पणीकार आजतक से संबद्ध हैं।)