महाराष्ट्र के विधानसभा क्षेत्रों में मुस्लिम मतदाताओं की बढ़ती भूमिका पर बीजेपी और कांग्रेस की सियासत गर्माई हुई है। उमर अब्दुल्ला ने कांग्रेस से गठबंधन कर सत्ता पाई, लेकिन अब उनके सुर बदल गए हैं। उमर ने कांग्रेस को एक भी मंत्री पद नहीं दिया और बीजेपी से नजदीकी बढ़ाने के संकेत दिए हैं। इस सियासी चाल के पीछे क्या वजह है, ये सवाल हर किसी के मन में उठ रहा है।

दोस्ती का पैगाम

उमर अब्दुल्ला के सुर बदल गए हैं। कांग्रेस के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ा। नैशनल कांफ्रेंस तो सूबे की सबसे बड़ी पार्टी बन गई पर कांग्रेस के खाते में महज छह सीटें ही आईं। उसका जनाधार जम्मू इलाके में था। पर वहां उसका सफाया हो गया। उमर ने बयान दे दिया कि कांग्रेस की वजह से नेशनल कांफ्रेंस को भी कम सीटें मिल पाईं। मुख्यमंत्री पद की शपथ ली तो कांग्रेस का एक भी मंत्री नहीं बनाया। हिंदुओं में पैठ बढ़ाने के लिए नौशेरा में भाजपा के सूबेदार रविंद्र रैना को हराने वाले अपनी ही पार्टी के सुरेंद्र चौधरी को उपमुख्यमंत्री बना दिया। शपथ ग्रहण समारोह में इंडिया गठबंधन के कई प्रमुख नेता नजर आए। राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे भी पहुंचे। पर राहुल का चेहरा असहज था। उमर ने कांग्रेस को एक मंत्रिपद देने की पेशकश की थी। कांग्रेस दो चाहती थी। अब कांग्रेस उमर सरकार का बाहर से समर्थन करेगी। जम्मू कश्मीर अभी पूर्ण राज्य नहीं है। लिहाजा मुख्यमंत्री के पास उपराज्यपाल से कम अधिकार हैं। ऐसे में उमर ने कांग्रेस से दूरी दिखाने का दांव चला है। केंद्र सरकार के सहयोग से सरकार चलाने, फिलहाल 370 की वापसी की उम्मीद न करने और पूर्ण राज्य के लिए संघर्ष करने की बात कहकर हर किसी को चौंकाया है। उमर के बदले तेवर भाजपा के साथ भविष्य में दोस्ती की पहल का संकेत हैं या महज स्वांग, यह आने वाला वक्त ही बताएगा।

वायनाड में प्रियंका गांधी

केरल की वायनाड सीट से कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को उम्मीदवार बनाया है। प्रियंका गांधी राजनीति में तो पिछले दो दशक से सक्रिय हैं पर अभी तक उन्होंने कोई चुनाव नहीं लड़ा है। वायनाड के दो बार के चुनाव नतीजों को देखते हुए उपचुनाव में प्रियंका की जीत में शायद ही किसी को संदेह हो। पर चुनाव तो चुनाव ही होता है। जाहिर है कि सोनिया गांधी, राहुल गांधी और दूसरे तमाम बड़े कांग्रेसी नेता उपचुनाव में प्रियंका का प्रचार करेंगे। भाजपा का वायनाड में खास जनाधार न होने से कांग्रेस का मुकाबला वाम-मोर्चे से होगा। प्रियंका के लोकसभा पहुंचने के बाद संसद के दोनों सदनों में नेहरू गांधी परिवार के तीन सदस्य हो जाएंगे। कई कांग्रेस समर्थकों को प्रियंका में उनकी दादी इंदिरा गांधी की झलक दिखती है। कांग्रेस उम्मीद कर रहे हैं कि प्रियंका के आने से संसद में पार्टी की भूमिका और प्रभावी व आक्रामक हो जाएगी।

वापसी पुराने प्रभारी की

लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए अपने गृह राज्य जा चुके दिल्ली के नए चुनाव प्रभारी की वापसी ने कई नेताओं की परेशानी बढ़ा दी है। वर्तमान चुनाव प्रभारी अब से पूर्व दिल्ली के प्रभारी के तौर पर काम कर रहे थे। पार्टी ने इस बार के लोकसभा चुनाव में उन्हें चुनाव मैदान में उतारा था। इसके बाद से ही दिल्ली भाजपा के नेताओं के बीच प्रभारी को हटाने की अटकल तेज हो गई थी। लोकसभा चुनाव में पार्टी ने हरियाणा के नेता को दिल्ली चुनाव का जिम्मा सौंप दिया था। पुराने प्रभारी की वापसी को लेकर कुछ लोग साफ-साफ यह भी कह रहे कि केंद्र ने कभी प्रभारी को हटाया ही नहीं था। इस राजनीतिक समीकरण को तैयार करने वाले नेताओं की खोजबीन होगी तो इसका असर दिल्ली चुनाव में नजर आएगा।

अब अ-सहयोगी

उत्तर प्रदेश में विधानसभा की दस सीटें खाली हैं। पर चुनाव आयोग ने 13 नवंबर को उपचुनाव केवल नौ सीटों का ही घोषित किया है। अयोध्या की मिल्कीपुर सीट का उपचुनाव अभी तक तय नहीं है। मिल्कीपुर वही आरक्षित सीट है जो फैजाबाद से लोकसभा सदस्य चुने जाने पर सपा नेता अवधेश प्रसाद के इस्तीफे से खाली हुई है। 2022 के विधानसभा चुनाव में पराजित एक उम्मीदवार ने हाई कोर्ट में चुनाव याचिका दायर कर रखी है। आयोग ने मामला अदालत में होने का कारण बताते हुए इस सीट के उपचुनाव का एलान नहीं किया है। हालांकि अदालत ने किसी तरह की रोक नहीं लगा रखी है। दूसरे, अवधेश प्रसाद के विधानसभा से इस्तीफे के बाद याचिका खुद ही निरर्थक हो चुकी है। अखिलेश यादव ने आरोप लगाया है कि अयोध्या में अधूरे राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा करके भी भाजपा वहां की लोकसभा सीट हार गई। अब उसे अयोध्या से लगी मिल्कीपुर सीट हारने का डर सता रहा था। इसलिए चुनाव याचिका का बहाना ले उपचुनाव टलवाया। बाकी नौ सीटों में से सात पर अखिलेश ने अपने उम्मीदवारों का एलान कर दिया है। दो सीटें उन्होंने सहयोगी कांग्रेस के लिए छोड़ी हैं। योगी आदित्यनाथ के लिए यह उपचुनाव प्रतिष्ठा का सवाल बना है। दावा तो वे सभी सीटें जीतने का कर रहे हैं पर मतदाताओं का क्या भरोसा? जिन्होंने गोरखपुर लोकसभा सीट के उपचुनाव में भी 2017 में भाजपा के प्रतिकूल नतीजा दे दिया था।

किधर जाएंगे जरांगे?

लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को महाराष्ट्र ने संजीवनी दी थी। महाराष्ट्र में विपक्षी गठबंधन ने 48 में से 30 सीटें जीती थी। सबसे ज्यादा 13 सीटें कांग्रेस ने जीती थी। भाजपा को महज नौ सीटों पर सफलता मिली थी। महाराष्ट्र विकास अघाड़ी में विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस, शिवसेना (उद्धव) और राकांपा (शरद) मिलकर उतरेंगे। महायुति में भी एकनाथ शिंदे को ही मुख्यमंत्री बनाने की रणनीति भाजपा ने बना ली है। भाजपा, शिवसेना (शिंदे) और राकांपा (अजित) को लोकसभा में 48 में से 17 व एक सीट आरएसपी को मिली थी। कांग्रेस का असली जनाधार दलित और मराठा माने जाते हैं। पर शिंदे सरकार ने ओबीसी वर्ग को साधने के लिए पुरजोर ताकत लगाई है। कांग्रेस को असली खतरा मराठों को ओबीसी आरक्षण के लिए आंदोलन कर रहे मनोज जरांगे पाटिल के रुख से है। पाटिल खुद विधानसभा चुनाव में उतरने की रणनीति पर विचार कर रहे हैं। फैसला जालना जिले में 20 अक्तूबर की पंचायत में करेंगे। हरियाणा जीतने के बाद भाजपा महाराष्ट्र और झारखंड में अपनी पूरी ताकत झोंक चुकी है तो जरांगे पर सबकी नजर है।

(संकलन : मृणाल वल्लरी)