हरियाणा में विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। चुनाव आयोग ने तिथि का ऐलान कर दिया है। इसके साथ ही राजनीतिक दलों का अपना एक्शन वाला रूप दिखने लगा है। उम्मीदवारी के लिए नेता अपनी गोटियां सेट करने लगे हैं, तो विपक्षी दल भी हालात के मुताबिक रणनीति बनानी शुरू कर दी है। दूसरी तरफ महाराष्ट्र, कर्नाटक और दिल्ली में सियासी गतिविधियां तेज हो गई हैं। कहीं आपसी टकराव है तो कहीं पार्टी में बगावत के सुर भी तेज हैं।

‘अ’ का आगमन

कांग्रेस आलाकमान के फैसलों का संदेश कब क्या हो किसी को पता नहीं। शायद फैसला करने वालों को भी नहीं। सभी फैसले चेहरा देख कर ही लिए जाते हैं शायद। हाल ही में अजय माकन को हरियाणा के लिए पार्टी प्रभारी नियुक्त किया गया है। लगता है कि हरियाणा  में आपसी खींचतान के कारण राज्यसभा चुनाव में हार का मुंह देख कर लौटे माकन हरियाणा में क्या कर सकेंगे, यह फैसला करने वालों ने भी नहीं सोचा। पर हां, इससे पार्टी में आपसी तनातनी जरूर शुरू हो गई है। पार्टी के चार धड़ों में पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा हैं जिनके खिलाफ एस (सैलजा) , आर (रणदीप सुरजेवाला ) और के (किरण चौधरी) की तिकड़ी सक्रिय रहे हैं। हालांकि अभिनेता शाहरुख खान को फिल्मी दुनिया में ‘एसआरके’ बुलाया जाता है। लेकिन हरियाणा की राजनीति के ‘एसआरके’ में एक भाजपा का दामन थाम चुका है। रणदीप से माकन की दोस्ती-दुश्मनी पुरानी है। सैलजा तो अब शायद अकेली ही हैं। रहा सवाल हुड्डा का तो राज्य में कद इतना ऊंचा है उन्हें न तो ‘आर’ चाहिए, न ‘एस’ और न अब नया जोड़ा गया ‘ए’। तभी तो हुड्डा ने ताल ठोक कर कह दिया, ‘न तो टायर्ड हूं और न रिटायर्ड।’ दरअसल माकन के प्रभारी बनने से पहले हुड्डा के नेतृत्व पर कोई सवाल नहीं था। पर माकन के प्रभारी बनते ही हुड्डा के खिलाफ विरोध मुखर हो गया। उसी का नतीजा है, ‘न टायर्ड, न रिटायर्ड’।

संघ के संग

तीन महीने बीत गए लोकसभा चुनाव को। लेकिन भाजपा अपने नए अध्यक्ष का फैसला नहीं कर पाई। स्वास्थ्य मंत्री बन जाने के बावजूद जेपी नड्डा ही पार्टी अध्यक्ष का दायित्व भी संभाल रहे हैं। इस बार अध्यक्ष के चयन में आरएसएस की भूमिका भी अहम होगी। लोकसभा चुनाव के दौरान नड्डा ने बयान दिया था कि अब भाजपा इतनी मजबूत है कि उसे आरएसएस की मदद की जरूरत नहीं है। इसलिए लोकसभा चुनाव में भाजपा की सीटें घटने की विपक्ष से ज्यादा खुशी आरएसएस के भीतर महसूस की गई। संघ प्रमुख ने दो अवसरों पर दो टिप्पणियां कर भाजपा के शिखर नेतृत्व और सरकार दोनों को धरातल पर ला दिया। एक-कुछ लोगों को अपने अवतार होने का भ्रम हो जाता है। दूसरी टिप्पणी अहंकार के संबंध में थी। नतीजा सामने है। अब सरकार और पार्टी दोनों के फैसले संघ की सहमति से होंगे।

दिल्ली में फिर पुराना दांव?

दिल्ली में भाजपा की चुनौती अपना 25 साल लंबा वनवास खत्म करना है। लोकसभा चुनाव में पार्टी ने सात में से केवल एक ही चेहरे को चुनावी मैदान में वापस उतारा था। बाकी सभी छह सीटों पर नए चेहरे थे। अब दिल्ली में विधानसभा चुनाव की बारी है। कांग्रेस व आम आदमी पार्टी इसके लिए तैयारियां भी शुरू कर चुकी है। इसी बीच खबरें है कि भाजपा अपने कई पुराने सांसद चेहरों को विधानसभा के चुनावी मैदान में उतार सकती है। इसे सीधे तौर पर दिल्ली के मुख्यमंत्री के चेहरे के गणित से जोड़कर देखा जा रहा है। पार्टी सूत्र मानते हैं कि इन नेताओं के उतरने से एक बार फिर से यह कदम पार्टी पर भारी पड़ सकता है। ऐसा ही एक समीकरण पहले भी दिल्ली में भाजपा को सियासी मात दे चुका है।

कलह कथा

कर्नाटक में भाजपा नेताओं का एक गुट बीवाई विजयेंद्र को पार्टी की कमान सौंपे जाने से नाखुश है। पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा के बेटे हैं विजयेंद्र। उनके दूसरे बेटे लोकसभा के सदस्य ठहरे। आरोप है कि पार्टी दूसरे दलों के नेताओं पर तो परिवारवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाते नहीं थकती पर अपने गिरेबां में झांकने से कतराती है। पार्टी पर येदियुरप्पा के परिवारवाद को पनाह देने तक का यह खेमा आरोप लगाता है। विजयेंद्र ने जनतादल (एस) के साथ मिलकर मैसूर में एक हफ्ते की पदयात्रा निकाली थी। मकसद सूबे की कांग्रेस सरकार के अनुसूचित जनजाति विकास निगम में किए गए घोटाले को उजागर करना था। विजयेंद्र विरोधी गुट ने इस पदयात्रा से पूरे समय किनारा किया। बाद में बेलागावी के एक रिसार्ट में बैठक कर येदियुरप्पा के परिवार से पार्टी की मुक्ति की रणनीति पर चर्चा की।

पत्रकारों ने कुरेदा तो लीपापोती करने के अंदाज में कह दिया कि मैसूर पदयात्रा काफी नहीं थी। बैठक मैसूर जैसी दूसरी पदयात्रा पर चर्चा के लिए हुई थी। विजयेंद्र के विरोध में लामबंदी के लिए नहीं। इस बैठक में विजयेंद्र गुट के किसी नेता का न पहुंचना संदेह पैदा करता है। सच तो यह है कि केएस ईश्वरप्पा, वीपी यतनाल, प्रताप सिन्हा, जीएम सिद्धेश्वर, अन्ना साहेब जौली, अरविंद लिंबावली व रमेश जरकीहोली जैसे पार्टी के कद्दावर नेता येदियुरप्पा के खिलाफ लामबंद हैं। गुटबाजी खत्म करने के आलाकमान के प्रयास फिलहाल नाकाम हैं।

पवार का पश्चाताप

महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री अजित पवार अपनी राज्यव्यापी जन सम्मान यात्रा पर निकले हैं। एनसीपी (अजित) के नेता ने एक साक्षात्कार में लोकसभा चुनाव के दौरान अपनी चचेरी बहन के मुकाबले अपनी पत्नी को मैदान में उतारने के फैसले को अपनी भूल बताया। बारामती सीट पर शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले ने अपनी भाभी यानि अजित पवार की पत्नी सुनेत्रा पवार को हरा दिया था। लोकसभा चुनाव में अजित पवार को झटका लगा था। उनके हिस्से की चार सीटों में से कामयाबी सिर्फ एक सीट पर मिली थी। अजित ने अब कई संकल्प किए हैं। मसलन वे अब अपने चाचा शरद पवार पर कोई आरोप नहीं लगाएंगे। केवल विकास की बात करेंगे। अपनी यात्रा में अजित पवार केवल मुख्यमंत्री लड़की बहन योजना का ही प्रचार कर रहे हैं। इससे माना जा रहा कि अजित पवार एक बार फिर पाला बदल सकते हैं। महायुति ने उन्हें उनकी संतुष्टि के हिसाब से विधानसभा सीटें न दी तो वे वापस चाचा शरद पवार की शरण में भी लौट सकते हैं। महायुति के लिए मुख्य सवाल है कि गठबंधन का अगला मुख्यमंत्री कौन होगा। एकनाथ शिंदे को ही मुख्यमंत्री घोषित करके देवेंद्र फडणवीस की अनदेखी तो करना नहीं चाहेगी भाजपा।