प्रेम प्रकाश
आधुनिक विश्व के लिए कोरोना कालखंड महज इसलिए अहम नहीं है कि इसने सेहत के मोर्चे पर लोगों को लंबे समय तक भयभीत रखा बल्कि इस दौरान तकनीक के साथ लोगों ने जीवन का एक नया साझा विकसित किया। खासतौर पर सूचना और संवाद के जरिए के तौर पर सोशल साइटों पर लोग खूब सक्रिय दिखे। पर यह सक्रियता कुछ समय तक एक सीध में चलने के बाद अब कई ऐसे संदर्भों और सरोकारों से जुड़ रही है, जो समझ और सलूक दोनों ही स्तरों पर लोगों को सचेत करती है।
विश्वयुद्ध का इतिहास दशकों पीछे छूट चुका है। नए दौर और नई पीढ़ी के लोगों के लिए दुनिया और सभ्यता का यथार्थ नवउदारवाद के मायने और उसके कुबेरी सरोकारों के साथ जुड़ा है। ऐसे में मौजूदा और बीते साल का कोरोना महामारी का अनुभव इंसानी तजुर्बे में जुड़े ऐसे पन्ने हैं जिनमें कुछ बातें, कुछ सबक नए सिरे से दर्ज हुए हैं। इस तजुर्बे में सबसे दिलचस्प और अहम है व्यक्ति और अभिव्यक्ति का रिश्ता। पूर्णबंदी के दौरान दुनिया के तमाम देशों में लोगों ने सर्वाधिक तौर पर खुद को अभिव्यक्त किया और इसका माध्यम बना सोशल मीडिया। अभिव्यक्ति के खुलेपन की समझ रखने वालों के लिए भी यह नया अनुभव था कि दुनियाभर में लोग अपने घरों में बंद रहकर आपस में बात कर रहे हैं।
समय, समाज और जीवन को लेकर वे अपनी चिंताओं को शब्द दे रहे हैं। यह भी महसूस हुआ कि तकनीक अब इंसानी जिंदगी का सहचर भर नहीं बल्कि उसके लिए एक ऐसा आधार है, जहां उसकी जिंदगी का बड़ा हिस्सा तय होता है। इमोजी और पोस्ट की दुनिया में इस तरह इंसानी दाखिले को लेकर कई खतरे भी जताए गए। समाजविज्ञानी युवाल नोवा हरारी ने जहां कोरोना संकट को सभ्यता संकट से जोड़ा, वहीं उन्होंने यह भी कहा कि अब हम ‘सर्विलांस’ के दौर में आ गए हैं। हमारी नाड़ी की गति और दिल की धड़कन से लेकर दिल-दिमाग तक को पढ़ने का जरिया वह तकनीक बन गया है, जिसे हम अपनी अभिव्यक्ति के लिए सबसे मुफीद माने बैठे हैं।
सामाजिकता का नया ढांचा
एक कारोबारी अखबार में छपे सर्वे के मुताबिक, जहां पहले यूजर सोशल मीडिया पर रोजाना औसतन 150 मिनट समय व्यतीत करते थे, वहीं बीते साल पूर्णबंदी के पहले हफ्ते में फेसबुक, वाट्सऐप और ट्विटर समेत अन्य सोशल मीडिया के मंचों पर वे 280 मिनट यानी चार घंटे से ज्यादा समय बिताने लगे। सर्वे में इस खतरे के प्रति भी आगाह किया गया कि ऐसे में जब लोग घरों में बंद हों तो समय गुजारने के लिए सोशल मीडिया एक अच्छा जरिया जरूर हो सकता है लेकिन बहुत ज्यादा स्क्रीन टाइम का असर आंखों के साथ हमारे दिल-दिमाग पर भी पड़ता है। कुछ मनोचिकित्सकों ने तो यहां तक कहा कि सोशल मीडिया के अतिरेकी इस्तेमाल ने मनुष्य की सामाजिकता का एक ऐसा ढांचा खड़ा कर दिया है, जिसमें भरोसा और छल दोनों शामिल हैं।
चेतना का हस्तक्षेप
पेन मेडिसिन और मैकलीन अस्पताल के शोध के अनुसार, मौजूदा समय में सोशल मीडिया चिंता और अवसाद के सबसे बड़े कारणों में से एक है। एक और अध्ययन है जो राजर्स बिहेवियरल हेल्थ ने किया है। इसमें यह सामने आया कि कैसे इंस्टाग्राम पर कम फालोवर्स होने के कारण बच्चे अवसाद और खाने के विकारों से पीड़ित हो रहे हैं। दिलचस्प है कि अकेलेपन में खुद को जाहिर करने और सामान्य अनुभव कराने वाला यह तकनीकी माध्यम हमें और अकेला कर रहा है, हमें एक चिंता से बाहर निकालने के नाम पर अवसाद के नए खतरों के बीच लाकर खड़ा कर रहा है।
यही वजह है कि भारत जैसे देश में जहां परंपरा और आधुनिकता की गलबहियां आज भी कमजोर नहीं पड़ी हैं, लोगों ने पूर्णबंदी के दौरान के अपने नए अभ्यास को बाद में तेजी से बदला भी। उन्हें यह खतरा समझ में आने लगा कि हाथ में मोबाइल फोन थामकर या लैपटाप की स्क्रीन के सामने घंटों बिताकर वे कुछ और नहीं कर रहे बल्कि अपने जीवन और समय को गैरजरूरी रियाज से जोड़ रहे हैं। घर वापसी की तर्ज पर इसे चेतना वापसी भी कह सकते हैं। साथ में यह भी जोड़ सकते हैं कि व्यक्ति और समाज की पारंपरिक लीक को तकनीक जरूर अपने तरीके से आगे बढ़ाती जा रही है पर मानवीय चेतना के हस्तक्षेप की गुंजाइश अभी बाकी है।
एकाकी और बैसाखी
पुणे स्थित मनोवैज्ञानिक तीथी कुकरेजा बताती हैं कि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सोशल मीडिया ने अपने दोस्तों और परिवार के साथ अच्छी तरह से जुड़ने में हमारी मदद की है, लेकिन यह हमारे अकेलेपन की जिस तरह से देखते-देखते बैसाखी बन गई है, वह मानसिक सेहत से भी आगे हमारे पूरे अस्तित्व के लिए खतरनाक है। कुकरेजा कहती हैं कि वे अगर ऐसा मानती हैं तो उसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि अब हम आत्मचिंतन नहीं करते बल्कि इससे बचने के लिए तकनीकी सहारों की मदद लेते हैं। हम अपने खालीपन को भरने के लिए जल्दी से अपने फोन का इस्तेमाल करने लगते हैं। जिन लोगों को लगता है कि बिना सोचे-समझे मोबाइल फोन पर फीड को स्क्राल करना कोई खास बड़ी बात नहीं है। बड़ा खतरा यह है कि ऐसे तमाम लोगों को आमतौर पर यह पता ही नहीं होता कि वे क्या कर रहे हैं।
कुकरेजा कहती हैं, ‘ज्यादातर लोगों के लिए इन प्लेटफार्मों का इस्तेमाल केवल कमेंट, लाइक और शेयर करने के लिए है। यह तत्काल संतुष्टि एक डोपामाइन रश को जन्म देती है, जो हमें हर बार उस पर वापस जाने के लिए उकसाता रहता है। लेकिन यह समझना भी अहम है कि जब आप दूसरों के साथ अपने जीवन की तुलना करना शुरू करते हैं, तो आपकी खुद की धारणा तेजी से प्रभावित होने लगती है।’
नकारात्मकता का खतरा
इस लिहाज से जो एक और बात जो अहम है, वह यह कि इन माध्यमों पर आकर हम खुद को कई नकारात्मकताओं से अनचाहे ही जोड़ लेते हैं। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने 2009 और 2012 के बीच सौ मिलियन से ज्यादा फेसबुक उपयोगकर्ताओं के एक बिलियन से अधिक स्टेटस अपडेट के आकलन के बाद पाया कि नकारात्मक पोस्ट की संख्या में वृद्धि का ग्राफ तेजी से चढ़ रहा है। कोरोनाकाल और उसके पहले से भी नकारात्मकता की इस दुनिया में खतरनाक तथ्य और अफवाह तेजी से शामिल हुए हैं। साफ है कि व्यक्ति और अभिव्यक्ति का संबंध और संकट तकनीक से और उलझेगा ही, इसके लिए उस स्वाभाविक चेतना का रास्ता ही अपनाना होगा जो हमारे सामाजिक अभ्यास और शिनाख्त दोनों से जुड़ा है।