दिल्ली में वायु प्रदूषण गंभीर समस्या है। इससे निपटने के लिए सरकार ने कुछ समय पहले पुराने वाहनों को सड़क से हटाने का फैसला किया, लेकिन बाद में जनता के दबाव में उसे अपने कदम वापस खींचने पड़े। राष्ट्रीय हरित अधिकरण के वर्ष 2015 के फैसले के तहत, पेट्रोल वाहनों को पंद्रह वर्ष और डीजल वाहनों को दस वर्ष की अवधि के बाद सड़क से हटाना अनिवार्य है। इसका उद्देश्य पुराने वाहनों को (जो शायद सबसे ज्यादा वायु प्रदूषण फैलाते हैं) सड़कों से हटाना और हवा की गुणवत्ता में सुधार करना है।

मगर ‘पुराने वाहन’ क्या वाकई सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाते हैं? क्या यह नीति वास्तव में पर्यावरण के लिए प्रभावी रूप में फायदेमंद है? क्या यह नीति पृथ्वी के सीमित संसाधनों और सतत् विकास के दीर्घकालीन लक्ष्य को ध्यान में रखती है? दरअसल, इस संदर्भ में कई सवाल अभी जवाब की प्रतीक्षा में हैं। ऐसे में इस पक्ष पर विचार महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि यातायात से प्रदूषण कम करने के लिए क्या वाहनों की ‘उम्र’ सबसे कारगर तरीका है या फिर वाहनों से असल में होने वाले प्रदूषण या वाहन द्वारा तय की गई दूरी जैसे प्रभावी मानदंड जल्दबाजी में छूट गए हैं?

दिल्ली में पुराने वाहनों को सड़क से हटाने की नीति (वाहन स्क्रैप नीति), मोटर वाहन अधिनियम 1988 (धारा 59) और राष्ट्रीय हरित अधिकरण के निर्देशों पर आधारित है। इसके पीछे तर्क यह है कि पुराने वाहन, जो शुरूआती उत्सर्जन मानकों (जैसे ‘प्री-भारत स्टेज’ या प्रारंभिक बीएस माडल; बीएस-एक या बीएस-दो) के हिसाब से बने हैं, वे नए वाहनों (बीएस-छह मानक) की तुलना में कहीं अधिक प्रदूषण फैलाते हैं। उदाहरण के लिए, बीएस-एक डीजल कार बीएस-छह कार की तुलना में 31 गुना तक अधिक सूक्ष्म कण हवा में उत्सर्जित करती है। यह नीति वाहनों की उम्र को एकमात्र सरल मानदंड मान ले रही है, क्योंकि वाहनों के पंजीकरण रेकार्ड आसानी से उपलब्ध होते हैं और इसके लिए जटिल परीक्षण की जरूरत नहीं पड़ती।

प्रदूषण फैला रहे वाहनों पर नियंत्रण की तैयारी में सरकार

प्रदूषण फैला रहे वाहनों पर नियंत्रण के लिए वाहन की आयु, उससे निकलने वाले प्रदूषण का स्तर और वाहन की तय की गई कुल दूरी जैसे मानदंडों पर बहस एक अहम मुद्दा है, खासकर दिल्ली जैसे महानगर में जहां वायु प्रदूषण गंभीर समस्या है। प्रदूषण-आधारित मानदंड वाहन के वास्तविक उत्सर्जन पर केंद्रित हैं, जिससे आयु की परवाह किए बिना सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वाले वाहनों को लक्षित किया जा सकता है। यह दृष्टिकोण वायु प्रदूषण को कम करने में अधिक प्रभावी हो सकता है, जिसे सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय ने भी अपनी वाहन नीति (2021) के मसविदे में रखा था। प्रदूषण-आधारित मानदंड जर्मनी जैसे देशों में काफी हद तक सफल भी रहे हैं। मगर वाहनों से निकलने वाले उत्सर्जन की अपर्याप्त निगरानी प्रणाली के कारण भारत में यह तंत्र चलन में तो है (जैसे समय-समय पर हर वाहन की प्रदूषण जांच करवानी पड़ती है), पर प्रभावी नहीं है।

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अगर वाहनों के लिए प्रदूषण परीक्षण का कारगर बुनियादी ढांचा हो, तो यह यातायात क्षेत्र से प्रदूषण को कम करने का सबसे प्रभावी तरीका है। वाहन की उम्र और उससे होने वाले उत्सर्जन के अलावा वाहन द्वारा तय की गई कुल दूरी के प्रभावी मानदंड हैं, जो नीदरलैंड में सफल तरीके से लागू हैं। इसके अनुसार, अधिक दूरी तय करने वाले वाहन घिसाव के कारण अधिक प्रदूषक उत्सर्जित करते हैं, चाहे उनकी आयु कुछ भी हो। इस प्रकार वाहन की आयु और प्रदूषण मानदंडों के साथ-साथ वाहन द्वारा तय की गई कुल दूरी प्रदूषित वाहनों को सड़कों से हटाने में एक संपूर्ण दृष्टिकोण दे सकती है। इस समेकित मानदंड के आधार पर असल में प्रदूषण फैलाने वाले वाहनों को ही कबाड़ में भेजने के लिए चिह्नित किया जा सकेगा, तब जाकर वाहनों से होने वाले प्रदूषण पर प्रभावी नियंत्रण हो सकेगा।

अमेरिका में कई वर्ष पहले पुराने वाहनों को कबाड़ में भेज कर नए वाहन खरीदने के लिए सबसिडी दी गई

आर्थिक दृष्टिकोण से जब पुराने वाहनों को सड़क से हटाया जाता है, तो नए वाहनों के लिए एक बाजार खुलता है। अमेरिका में कई वर्ष पहले पुराने वाहनों को कबाड़ में भेज कर नए वाहन खरीदने के लिए सबसिडी दी गई, जिससे कारों की बिक्री में जबरदस्त तेजी दर्ज की गई। भारत में भी आटोमोबाइल निर्माता संघ ऐसी नीतियों का समर्थन करता आया है। इसका एक पहलू यह भी है कि जब पुराने वाहन हटेंगे, तो उससे प्रभावित लोग नए वाहन का रुख करेंगे। नए वाहन तैयार करने की प्रक्रिया भी प्रदूषण से मुक्त नहीं होती। इसमें स्टील, एल्युमीनियम, प्लास्टिक और दुर्लभ धातुओं के संसाधनों तथा रसायनों की भारी खपत से बड़े पैमाने पर कार्बन उत्सर्जन होता है। बाकी संसाधनों की खपत छोड़ भी दें, तो सामान्य तौर पर एक औसत कार के निर्माण में करीब दस टन कार्बन डाइआक्साइड उत्सर्जित होती है। ऐसे में अगर एक पुराना वाहन, प्रदूषण मानदंड को पूरा कर रहा है, तो उसे कबाड़ में भेज कर उसकी जगह नया वाहन लिया जाए, तो कुल मिला कर पर्यावरण को ही नुकसान होगा।

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बेहतर होगा कि नई नीति पर्याप्त संशोधन के साथ लागू की जाए, जिसके तहत केवल प्रदूषण फैलाने वाले वाहन ही हटाए जाएं। हटाए गए वाहनों की जगह कम प्रदूषण वाले वाहनों का विकल्प हो, जिससे जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम हो। साथ ही पुराने वाहनों को कम प्रदूषण वाले इंजन या तकनीक से अद्यतन करने की व्यवस्था भी कारगर हो सकती है। इस लिहाज से तय की गई दूरी और प्रदूषण आधारित मानदंड मौजूदा नीति का एक बेहतर विकल्प हो सकता है। हालांकि, इसके लिए मजबूत उत्सर्जन परीक्षण व्यवस्था की जरूरत है। भारत में प्रदूषण नियंत्रण प्रमाणपत्र प्रणाली खानापूर्ति बन कर रह गई है, जो अभी इतनी सक्षम नहीं है कि उत्सर्जन को सटीक माप सके, लेकिन इस दिशा में ध्यान केंद्रित किया जाए, तो प्रदूषण-आधारित मानदंड अधिक न्यायसंगत और प्रभावी साबित हो सकता है।

भले ही यह नीति आर्थिक रूप से अभी लाभकारी लग रही हो, पर दीर्घकालिक रूप से यह घाटे का सौदा है और पश्चिम की कार संस्कृति की नकल भर है। यह अलग बात है कि अमेरिका को छोड़ कई पश्चिमी देश कारों के जाल से निकल रहे हैं और एक हम हैं कि शहरों में वायु प्रदूषण के बावजूद नए वाहन खरीदते जा रहे हैं। दिल्ली में वायु प्रदूषण संकट के दशकों बीत जाने के बाद भी हम उसी अनुत्तरित सवाल का सामना कर रहे हैं कि क्या प्रदूषण और प्रकृति संरक्षण के बीच संतुलन बनाया जा सकता है? क्या हम एक ऐसी अदद नीति बना सकते हैं, जो वास्तव में हवा की गुणवत्ता को बनाए रखे?