आम आदमी पार्टी(आप) के दोनों धड़े पार्टी को अपने एजंडे पर लाने और दूसरे का एजंडा कमजोर करने में लग गए हैं। बागी खेमे के बुलावे पर 14 अप्रैल को गुड़गांव में जुटी भीड़ से उत्साहित नेताओं ने प्रो आनंद कुमार को संयोजक बना कर स्वराज्य अभियान चलाने की घोषणा की। इसके तहत देश भर में स्वराज्य अभियान यात्रा निकलेगी और देश भर के करीब 30-35 स्थानों पर अगले कुछ महीनों में स्वराज्य संवाद का सिलसिला चलेगा।
उधर दूसरी ओर अलग पार्टी बनाने या आप नेताओं पर सीधे नाम लेकर आरोप न लगाने के चलते आप की राजनीतिक मामलों की समिति(आप) ने सीधे कुछ करने के बजाए मामले को पार्टी की उस नई अनुशासन समिति को सौंपने का फैसला किया है जिसके वजूद पर अनुशासन समिति के पूर्व अध्यक्ष प्रशांत भूषण ने उसके गठन के पहले ही दिन सवाल उठाया था। आप की सरकार के मुखिया अरविंद केजरीवाल और उनके साथ जुड़े नेताओं की कोशिश है कि सरकार के काम से बागी खेमे के आयोजन के असर को कम किया जाए। इसी के चलते बुधवार को ही उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने एक स्कूल के भ्रष्टाचार को उजागर कर उसके प्राचार्य के खिलाफ कारवाई की।
सरकार में शामिल नेताओं का प्रयास है कि वे यह दिखाएं कि पार्टी के कुछ लोग दूसरे मुद्दे उठाकर उसमें बाधा डाल रहे हैं। आलम यह है कि फिलहाल आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला बंद होता नहीं दिख रहा है। पार्टी के वरिष्ठ नेता संजय सिंह कहते हैं कि सवाल तो यह पूछा जाना चाहिए कि विरोध करने वालों की बात मान लेने के बाद बातचीत क्यों टूटी। पार्टी नेता पृथ्वी रेड्डी और आतिशी के पत्र से काफी बातें साफ हो रही हैं।
उनके मुताबिक पार्टी के समानांतर बैठक करना अनुशासनहीनता नहीं है तो क्या है। इसी तरह के तमाम आरोप बागी नेता प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव लगा चुके हैं। उनकी बातों की पुष्टि पार्टी प्रमुख अरविंद केजरीवाल के दो स्टींग से हुई है।
उन स्टींगों को पार्टी की ओर से झुठलाया नहीं गया है। फिर जिस तरह से 28 मार्च को राष्ट्रीय परिषद की बैठक में एक तरफा फैसला कर आप ने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं- योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, प्रो आनंद कुमार और अजीत झा को राष्ट्रीय कार्यकारिणी से निकाला गया और प्रशांत भूषण को हटा कर नई अनुशासन समिति और आंतरिक लोकपाल एडमिरल(रिटायर) रामदास को हटा कर तीन सदस्यों की लोकपाल कमेटी बनाई गई, उससे पार्टी के दो खेमों में बंटना तय-सा हो गया था।
एक तरफ 28 की बैठक में खुद के कामकाज पर सवाल उठाने वालों पर केजरीवाल के सीधा हमला करने की आॅडियो लोगों ने 29 मार्च को देखा, जिसको कांट-छांट कर दिखाने का आरोप प्रशांत भूषण ने लगाया। दूसरे खेमें को उसका जबाब देने का कोई मौका नहीं दिया गया। कार्यक्रम स्थल पर मीडिया के प्रवेश पर पाबंदी थी और आरोप लगा कि जो परिषद के सदस्य थे, उन्हें जाने से रोका गया और जो सदस्य न थे, उन्हें अंदर जाने दिया गया। यहां तक आरोप लगाए गए कि उपस्थिति के लिए कराए गए हस्ताक्षर को ही चारों नेताओं को राष्ट्रीय कार्यकारणी से बाहर निकालने वाले प्रस्ताव का समर्थकों की संख्या बता दी गई।
गुड़गांव में 14 अप्रैल की बैठक में मीडिया क्या, हर कार्यकर्त्ता के आने-जाने की इजाजत थी। दोनों बैठकों की रिपोर्ट सार्वजनिक होने के बाद बागी नेताओं के समर्थकों की तादाद बढ़ने के दावे किए जा रहे हैं। राष्ट्रीय परिषद की बैठक के बाद लगातार किसी न किसी नेता के इस्तीफा और मौजूदा आप नेतृत्व से नाराजगी के बयान आते ही रहे। बागी खेमे के नेताओं ने केजरीवाल की इतने समय से बनी लोकप्रिय नेता की छवि को तोड़ने का काम किया। 26 फरवरी की कार्यकारणी की बैठक में ही केजरीवाल ने प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव के साथ काम न करने की बात कह कर अपनी स्थिीति साफ कर दी थी।
चार मार्च की पीएसी में उन्हें बाहर करने के फैसले में केजरीवाल सीधे तौर में शामिल नहीं हुए, वे बैठक के दौरान पूरे समय दिल्ली सचिवालय में रहे। वे केवल इतना भर बोले कि उन्हें इस झगड़े में नहीं पड़ना है, दिल्ली की जनता की उम्मीदों पर खरा उतरना है। बागी नेताओं को यह अहसास है कि दिल्ली चुनाव में प्रचंड बहुमत लाने में सबसे बड़ी भूमिका अरविंद केजरीवाल की है। जिस वर्ग ने उन्हें एक तरफा वोट दिया उसे संतुष्ट करने के लिए उन्होंने बिजली और पानी में सबसिडी देकर उसमें छूट दिलवा दी।
अनधिकृत कालोनियों में रजिस्ट्री शुरू करवाने की घोषणा कर दी और भ्रष्टाचार रोकने के लिए हेल्प लाइन चालू कर दी। वे पिछली बार से उलट इस बार मीडिया से सहज नहीं हैं। उन्होंने दिल्ली सचिवालय में मीडिया के जाने पर पाबंदी लगवाई। अब हर रोज तीन बजे के बाद पाबंदी हटी है लेकिन उन तक किसी की पहुंच नहीं है। उनके दफ्तर वाली मंजिल को पूरी तरह से सील कर दिया गया है।
वे और उनके सहयोगी मीडिया को काम करने में बाधा मान रहे हैं। उनका सारा फोकस भ्रष्टाचार दूर करने पर दिल्ली भर में विज्ञापन करने से है। भ्रष्टाचार निरोधक शाखा को ज्यादा ताकतवर बनाया गया है। वे मंहगाई और जनता को सीधे प्रभावित करने वाले मुद्दे पर बोलते हैं। उन्हें लगता है कि इन कामों से वे बागी खेमे के सामने बड़ी लकीर खींच देंगे।
वहीं बागी खेमा उनका खेल बिगाड़ने में लगा हुआ है। बागी खेमे के नेताओं को लगता है कि राजनीति का वैकल्पिक प्रयोग कुछ लोगों को सरकारी पद दिलाने के लिए नहीं था। पार्टी और सरकार के कामकाज में आम जनता की भागीदारी न होने के साथ-साथ पार्टी अपने मूल उद्देश्यों से भटक गई है। जो लोग सही राह दिखाने की कोशिश कर रहे हैं, उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है। दिल्ली में सरकार बनने तक जो बातें ढकी हुई थीं, वे एक-एक करके सामने आने लगी हैं।
बागी नेताओं ने अनुशासन का डंडा दिखने के बावजूद 14 अप्रैल को गुड़गांव में अपेक्षित भीड़ जुटाकर अपनी ताकत का अहसास करा दिया। अगर वे अपनी घोषणा के अनुरूप देश भर में इसी तरह कार्यक्रम करने में सफल होते हैं तो बागियों की ताकत और बढ़ेगी। जिस तरह की उनकी तैयारी है, उसमें वे अपने अभियान को कम करने को तैयार नहीं हैं। वे पार्टी नहीं छोड़ेंगे, पार्टी उन्हें निकालेगी तो उन्हें ज्यादा समर्थन मिलेगा। वे ऐसा कुछ करते रहेंगे कि चाह कर भी केजरीवाल चुप न रह पाएं।
मनोज मिश्र