मायावती की रैली में भीड़ जुटी, लेकिन उसका असर वोटों में दिखेगा या नहीं, यह सवाल बना हुआ है। बिहार में सीटों की खींचतान, दिल्ली में अधूरे वादे, मणिपुर का राजनीतिक संकट और भाजपा नेतृत्व का अनिर्णय—इन सबके बीच बहुमत की राजनीति अब दिशा से ज्यादा समीकरण और रणनीति की खोज करती नजर आ रही है।

बात बहुमत की

बहनजी की लखनऊ रैली में भीड़ तो आ गई, पर विधानसभा चुनाव में ये भीड़ वोटों में तब्दील हो जाएगी, कहना मुश्किल है। बसपा प्रमुख मायावती ने पार्टी के संस्थापक मान्यवर कांशीराम की पुण्यतिथि पर रैली के बहाने अपना शक्ति प्रदर्शन किया। दावा किया कि 2007 की तरह 2027 में भी बसपा की बहुमत की सरकार बनेगी। कैसे? इसका कोई फार्मूला नहीं बताया। यह नहीं भूलना चाहिए कि 2007 में बसपा को 30 फीसद वोट मिले थे और 207 सीटें। जबकि 2022 में उसे एक सीट मिल पाई और वोट घटकर आठ फीसद रह गए।

मायावती 2019 के बाद से लगातार निष्क्रिय हैं। संसद में उनका एक भी नुमाइंदा नहीं। अपनी रैली में भी उन्होंने कांग्रेस और समाजवादी पार्टी को निशाने पर लिया, जबकि ये दोनों पार्टियां विपक्ष में हैं। सूबे के भाजपा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की उन्होंने तारीफ की। उनकी इस रणनीति का कारण उनके समर्थक भी नहीं समझ पा रहे हैं। दरअसल, मायावती को डर सता रहा है कि उनका दलित वोट बैंक खिसक कर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के साथ जा सकता है, इसलिए वे इन पर हमलावर हैं। जहां तक भाजपा का सवाल है, चर्चा है कि चुनाव से पहले भाजपा, कांशीराम को भारत रत्न देकर दलितों को लुभाने की कोशिश करेगी। जैसे लोकसभा चुनाव से पहले चरण सिंह को देकर जाटों को रिझाया था।

कितने उपमुख्यमंत्री!

बिहार में चुनाव की तारीखों के एलान के साथसभी दलों में सीट बंटवारे और उम्मीदवारों के चयन को लेकर घमासान मचा है। महागठबंधन में कांग्रेस जहां तेजस्वी यादव पर दबाव बनाए है, वहीं राजग में चिराग पासवान और जीतन राम मांझी ज्यादा सीटों की मांग पर अड़े हैं। महागठबंधन में मुकेश सहनी अपने लिए उपमुख्यमंत्री पद की घोषणा पहले ही चाहते हैं।

उधर ओवैसी और प्रशांत किशोर ने दोनों गठबंधनों की नींद उड़ा रखी है। जन सुराज पार्टी ने अपने दावे के मुताबिक 51 उम्मीदवारों की पहली सूची जारी कर ‘जो कहा सो किया’ पर अमल किया है। राजग और महागठबंधन दोनों की तरफ से अभी तक अगले मुख्यमंत्री के नाम की घोषणा नहीं की गई है। सरकार किसकी बनेगी यह तो चुनाव नतीजे ही तय करेंगे पर इतना साफ दिख रहा है कि उपमुख्यमंत्री कम से कम दो अन्यथा तीन की नौबत भी आ सकती है।

क्या हुआ तेरा वादा?

विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा ने वादा किया था कि दिल्ली की महिलाओं को आर्थिक सहायता उपलब्ध कराने के लिए योजना शुरू की जाएगी। भाजपा के इस वादे को लेकर दिल्ली की महिला मतदाताओं में खासा उत्साह भी था। लेकिन, अभी तक इस योजना को लेकर जमीनी तैयारियां पूरी नहीं हो पाई हैं। इस वजह से भाजपा के नेता अभी भी केवल इस योजना को जल्द ही पूरा करने का वादा करते नजर आ रहे हैं। हालांकि, दूसरे राज्य के पोस्टर नई दिल्ली के मुख्य मार्ग पर जरूर नजर आ रहे हैं, जो महिलाओं को बार-बार दिल्ली सरकार से पूछने पर मजबूर कर रहे, क्या हुआ तेरा वादा? हाल ही में ये बोर्ड हरियाणा सरकार द्वारा दिल्ली की सड़कों पर लगाए गए हैं

मणिपुर का सवाल

भाजपा मणिपुर को लेकर दुविधा में है। विधानसभा को निलंबित हुए छह महीने से ज्यादा का वक्त हो चुका है। फरवरी से सूबे में राजकाज राज्यपाल अजय भल्ला संभाल रहे हैं। जो केंद्र में गृह सचिव थे। चर्चा थी कि मणिपुर संकट का जल्द समाधान होगा और भल्ला को वापस बुलाकर दिल्ली का उपराज्यपाल बनाया जाएगा। पर भाजपा मुख्यमंत्री के फंसे पेच को सुलझा नहीं पा रही। समस्या एन बीरेन सिंह बने हैं। ज्यादातर मैतेई विधायक उनके साथ हैं। उनकी जगह किसी और मैतेई को बनाया तो दोहरा खतरा है। पार्टी में असंतोष बढ़ सकता है और फिर हिंसा भड़क सकती है।

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मैतेई समुदाय के अलावा किसी और को भाजपा मुख्यमंत्री नहीं बनाना चाहेगी। इसलिए उलझन बनी हुई है। हालांकि राष्ट्रपति शासन में मोटे तौर पर शांति है। विधानसभा का कार्यकाल अब डेढ़ साल बचा है। अभी से किसी को मुख्यमंत्री न बनाया तो चुनाव पूर्व तैयारी कैसे होगी। एक विकल्प विधानसभा भंग करके अगले साल दूसरे राज्यों के साथ मणिपुर का भी चुनाव कराने का है। तब किसी मैतेयी को फिर मुख्यमंत्री बनाना आसान होगा। लेकिन हार का जोखिम भी तो है।

लोकसभा चुनाव में भाजपा मणिपुर की दोनों सीटें हार गई है। हारने से अच्छा तो राष्ट्रपति शासन बनाए रखना ही होगा। मणिपुर को लेकर भाजपा हमेशा सवालों में रही है। इस सूबे का हल उसे अब तक मिल नहीं सका है। देखना है कि मणिपुर पर उलझन कब तक बरकरार रहती है।

समय संक्रांति तक

भाजपा अपना नया अध्यक्ष नहीं चुन पा रही। पार्टी अध्यक्ष का चुनाव पिछले दो साल से किसी न किसी बहाने टलता रहा है। जेपी नड्डा पिछले ढाई साल से विस्तार पर हैं। अब वे केंद्र में मंत्री भी हैं। भले ही भाजपा कहती है कि वह एक व्यक्ति, एक पद की नीति पर चलती है। लेकिन, अब चर्चा है कि नड्डा के उत्तराधिकारी का फैसला अगले साल मकर संक्रांति के बाद ही हो पाएगा।

दरअसल, राष्ट्रीय अध्यक्ष का फैसला न हो पाने का कारण उत्तर प्रदेश और गुजरात में भी पार्टी अध्यक्ष तय नहीं हो पाना बताया जा रहा था। गुजरात में सीआर पाटिल भी नड्डा की तरह ही विस्तार पर थे और केंद्र में मंत्री भी। उनके उत्तराधिकारी के नाम पर पार्टी में सहमति नहीं बन पाना विलंब की वजह बना। अब जगदीश विश्वकर्मा गुजरात भाजपा अध्यक्ष बन गए हैं। उन्हें अमित शाह का करीबी माना जाता है। अब बचा उत्तर प्रदेश, जहां भूपेंद्र चौधरी भी हटने का इंतजार कर रहे हैं। मुख्यमंत्री योगी अगड़े हैं तो माना जा रहा है कि पार्टी अध्यक्ष पिछड़ा होगा। आलाकमान के अनिर्णय के कारण राज्य में मंत्रिमंडल मे फेरबदल भी लटका है। जबकि अब चुनाव में ज्यादा वक्त भी नहीं बचा है।