नवंबर 2023 में बिहार सरकार ने एससी, एसटी, ओबीसी और ईबीसी को सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में मिलने वाला आरक्षण बढ़ा कर 50 से 65 फीसदी कर दिया था। यह नीतीश सरकार का बड़ा राजनीतिक दांव था। बिहार में एक वोट बैंक बढ़ाने और अपनी छवि निखारने के लिहाज से। लेकिन, हाईकोर्ट के फैसले से इसे झटका लगा है।
पटना हाईकोर्ट ने कहा कि आरक्षण का एक मात्र आधार यह नहीं हो सकता कि आबादी में प्रतिशत कितना है। मेरिट की पूरी तरह अनदेखी नहीं की जा सकती। साथ ही, अदालत ने यह भी कहा कि बिहार सरकार का फैसला समानता के अधिकार की संवैधानिक व्यवस्था का उल्लंघन है।
कोर्ट ने कहा कि 50 फीसदी की तय सीमा से ऊपर जाकर आरक्षण देना समानता के सिद्धांत और कानून के आधार पर गलत है। बिहार सरकार ने जातिगत सर्वे के नतीजे के आधार पर अपने फैसले को सही ठहराने की नाकाम कोशिश की।
क्या था आरक्षण का मूल मकसद?
आरक्षण का मूल मकसद एससी-एसटी का सामाजिक स्तर ऊपर उठाना और पढ़ाई या नौकरी में उनकी भागीदारी बढ़ाना था, ताकि समाज बराबरी की ओर बढ़ सके। लेकिन, हुआ क्या? आबादी में एससी 22 प्रतिशत, एसटी 10 प्रतिशत और ओबीसी 42 प्रतिशत बताए जाते हैं। लेकिन हायर एजुकेशन में एनरॉलमेंट की बात करें तो एससी स्टूडेंट्स की संख्या 66.23 लाख, एसटी का 27.1 लाख और ओबीसी का 1.63 करोड़ है। यह 2021-22 का आंकड़ा है जो सरकार ने दिया है।

सरकारी नौकरियों में आरक्षण
1950 में जो आरक्षण की व्यवस्था लागू की गई उसके तहत सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति (एससी) को 12.5 प्रतिशत और एसटी को 5 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान था। मार्च 1970 में यह 15 और 7.5 प्रतिशत कर दिया गया। लेकिन, जिसे जरूरत थी वह आरक्षण का फायदा ले ही नहीं पा रहा था। समय-समय पर विशेष अभियान चला कर आरक्षित सीटें भरनी पड़ती थीं।
पिछड़ी जातियों के आरक्षण की मांग
इस बीच पिछड़ी जातियों की ओर से आरक्षण की मांग भी उठी थी। जनवरी 1953 में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने एक कमीशन बनाया। आचार्य काका केलकर के नेतृत्व में बनी इस कमेटी की सिफारिशें 1955 में आईं, लेकिन उन्हें लागू नहीं किया गया।
1967 में कई राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं। अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग जातियों के नेता मुख्यमंत्री बने। पिछड़े-दलित-ओबीसी समाज के नेताओं के हाथ में सत्ता आई या वे राजनीति में मुखर हुए। उनके जरिए अलग-अलग जातियों के लिए आरक्षण की मांग उठी और तेज होती गई।

ओबीसी आरक्षण की मांग
अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) के तहत आने वाली इन जातियों के विधायक-सांसद बढ़ते गए तो इनके लिए आरक्षण की मांग और तेज होती गई। 1971 में बिहार के मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने आरक्षण के मसले पर मुंगेरी लाल आयोग बनाया। तीन साल बाद यूपी में हेमवती नंदन बहुगुणा ने ऐसी ही एक कमेटी बनाई। इन सबके बीच जब मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने मंडल आयोग बना दिया। बिहार के पूर्व सीएम बीपी मंडल की अगुआई में।
मंडल आयोग की रिपोर्ट आने से पहले ही मोरारजी सरकार चली गई। कांग्रेस राज लौट गया। उधर बिहार में कर्पूरी ठाकुर और यूपी में राम नरेश यादव ने राज्य की सरकारी नौकरियों में ओबीसी के लिए क्रमश: 20 और 15 प्रतिशत आरक्षण लागू कर दिया। इससे अन्य राज्यों में भी आरक्षण लागू करने के लिए दबाव बना।
मंडल आयोग की रिपोर्ट बनी चुनावी मुद्दा
1989 के लोकसभा चुनाव में मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करना चुनावी मुद्दा बन गया। जब वीपी सिंंह प्रधानमंत्री बने तो 15 अगस्त, 1990 को उन्होंने लाल किले से मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने का ऐलान कर दिया। हालांकि, वह इस पर अमल कर पाते इससे पहले भूतपूर्व प्रधानमंत्री बन गए।

सुप्रीम कोर्ट ने खारिज किया अगड़ी जातियों के लिए आरक्षण
वीपी सिंंह के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी गई थी। कोर्ट ने 16 नवंबर, 1992 को फैसला दिया। इसके आधार पर ‘क्रीमी लेयर’ को बाहर रखते हुए आरक्षण लागू हो गया। 1991 में आई नरसिम्हा राव सरकार ने अगड़ी जातियों के गरीबों के लिए दस फीसदी आरक्षण की घोषणा की, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया।
बीजेपी ने भी इसे मुद्दा बनाया था और 1996 के लोकसभा चुनाव में घोषणापत्र तक में शामिल किया था। मनमोहन राज में ओबीसी को आरक्षण का फायदा केंद्र के शिक्षण संस्थानों में भी दिया जाने लगा। साथ ही, सरकारी नौकरियों में तीन फीसदी आरक्षण विकलांग व्यक्तियों के लिए भी सुनिश्चित किया गया।
2024 के लोकसभा चुनाव में भी आरक्षण रहा बड़ा मुद्दा
2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी। 2019 का लोकसभा चुनाव आने से पहले उन्होंने अगड़ी जातियों के गरीब लोगों के लिए 10 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की।
2024 के लोकसभा चुनाव में भी आरक्षण एक बड़ा मुद्दा बना। विरोधी दलों ने मतदाताओं के बीच यह बात फैलाई कि अगर एनडीए को 400 सीटें आ गईं तो मोदी सरकार आरक्षण खत्म कर देगी। माना जाता है कि इस बात का विरोधी पक्ष (इंडिया गठबंधन) को फायदा भी हुआ और भाजपा खराब प्रदर्शन के विश्लेषण में इस बात की सच्चाई भी जांचने जा रही है।