आंध्र प्रदेश में पिछड़ा वर्ग कल्याण मंत्री ने बुधवार (18 अक्टूबर) को कहा कि राज्य में 15 नवंबर से पिछड़ा वर्ग की जनगणना शुरू होगी । सी श्रीनिवास वेणुगोपाला कृष्णा ने कहा कि राज्य में पिछड़ा वर्ग की 139 जातियां हैं लेकिन उन्हें अपनी संख्या का अंदाजा ही नहीं है। पिछड़ा वर्ग की गिनती से सरकार को डेटा मिलेगे, जिससे उन्हें बेहतर सर्विस देने में मदद मिलेगी।
इस महीने की शुरुआत में बिहार में जाति सर्वेक्षण के नतीजों सामने आने के बाद यह संभावना बढ़ गई थी कि अन्य राज्य भी इसी तरह की घोषणा करेंगे। आरक्षण दिए जाने में समानता सुनिश्चित करने के लिए जातियों की गणना और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के उप-वर्गीकरण का मुद्दा लंबे समय से गर्म रहा है।
अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) कौन हैं?
‘OBC’ शब्द पिछड़े या हाशिए पर मौजूद समुदायों और जातियों को दर्शाने के लिए गढ़ा गया था जो अनुसूचित जाति (SC) या अनुसूचित जनजाति (ST) नहीं थे। यह माना जाता है कि भारत में सामाजिक पिछड़ापन जाति व्यवस्था के कारण रहा है की स्थिति का प्रत्यक्ष परिणाम रहा है, अन्य प्रकार के पिछड़ेपन भी इसी प्रारंभिक बाधा से पैदा हुए हैं।
OBC में ‘पिछड़े’
ओबीसी की पहचान आम तौर पर उनके व्यवसाय के आधार पर की गई है। इसमें अपनी जमीन पर खेती करने वाले, दूसरों की जमीन किराए पर लेकर खेती करने वाले, खेतों में मजदूरी करने वाले, सब्जियों, फलों और फूलों की खेती और बिक्री करने वाले, मवेशी पालन वाले, कपड़ा धोना वाले, बढ़ईगीरी करने वाले, मिट्टी का काम करने वाले, पत्थर काटने वाले, लोहा का काम करने वाले, आदि शामिल होते हैं।
ओबीसी के भीतर भी कई जातियां हाशिए पर हैं। मोटे तौर पर देखें तो ओबीसी के भीतर दो बड़ी श्रेणियां हैं। पहले वे जिनके पास जमीन है (जैसे कि बिहार और उत्तर प्रदेश में यादव और कुर्मी), और दूसरे वे जिनके पास जमीन नहीं है।
पिछले कुछ वर्षों में ‘ओबीसी में पिछड़ों’ के लिए आरक्षण की मांग ने जोर पकड़ लिया है। यह भावना बढ़ी है कि मुट्ठी भर ‘उच्च’ ओबीसी ने मंडल आयोग की सिफारिशों से निकले 27% आरक्षण का अधिकांश लाभ हड़प लिया है।
EBC कौन हैं?
बिहार के जाति जनगणना में पिछड़ों की आबादी 27% और अत्यंत पिछड़ा वर्ग (EBC) की आबादी 36% बताई गई है। 1951 की शुरुआत में बिहार सरकार ने 109 जातियों की एक सूची तैयार की थी। इस सूची में 79 जातियों को शेष 30 की तुलना में ‘अधिक पिछड़ा’ माना गया था। 1964 में पटना उच्च न्यायालय ने इस असंवैधानिक करार दे दिया।
जून 1970 में बिहार सरकार ने मुंगेरीलाल आयोग नियुक्त किया, जिसने फरवरी 1976 की अपनी रिपोर्ट सौंपी। रिपोर्ट मे 128 जातियों को पिछड़ा माना गया और उनमें से 94 की पहचान “सबसे पिछड़ा” के रूप में की गई। मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर की जनता पार्टी सरकार ने मुंगेरीलाल आयोग की सिफारिशों को लागू कर दिया।
तथाकथित कर्पूरी ठाकुर फार्मूला के तहत बिहार में 26% आरक्षण की व्यवस्था की गई, जिसमें से ओबीसी को 12% हिस्सा मिला, ओबीसी के बीच आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को 8%, महिलाओं को 3% और ‘उच्च जातियों’ के गरीबों को 3% मिला।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कुर्मी जाति से आते हैं, जो संख्यात्मक रूप से छोटी है। ऐसे में नीतीश कुमार को अपने लिए बड़ा राजनीतिक आधार बनाना था, इसलिए उन्होंने ‘उच्च’ ओबीसी, मुख्य रूप से यादवों (जो लालू प्रसाद यादव के समर्थक माने जाते हैं) को छोड़कर ‘पिछड़े’ ओबीसी (मुख्य रूप से कारीगर जाति) तक पहुंचने का प्रयास किया है।
बिहार में अत्यंत पिछड़ा वर्ग (EBC) की तरह, अनुसूचित जातियों में ‘महादलित’ वर्ग की की पहचान की गई है। बिहार और यूपी दोनों राज्यों में EBC को एक बड़े वोट बैंक के रूप में देखा जाता है जिसे भाजपा भी लुभाती है।
बिहार में ओबीसी आरक्षण वर्तमान में तीन समूहों में बँटा हुआ है- बीसी-I, बीसी-II और OBC महिला। ये विभाजन बदल सकता है जब जाति सर्वेक्षण के निष्कर्षों पर कार्रवाई की मांग की जाएगी।
दो ओबीसी आयोग
नेहरू सरकार ने नहीं लागू किया ओबीसी आरक्षण
पहला ओबीसी आयोग: काका कालेलकर की अध्यक्षता में पैनल का गठन 29 जनवरी, 1953 को जवाहरलाल नेहरू की सरकार द्वारा किया गया था। आयोग ने 30 मार्च, 1955 को अपनी रिपोर्ट सौंपी। सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान करने के लिए , आयोग ने निम्नलिखित मानदंड अपनाए: आयोग ने देखा कि हिंदू समाज के पारंपरिक जाति पदानुक्रम में सामाजिक स्थिति क्या है?, जाति/समुदाय के बीच शिक्षा का कितना अभाव है? सरकारी सेवा में कितना प्रतिनिधित्व है? व्यापार या उद्योग में कितनी भागीदारी है?
पहले ओबीसी आयोग ने देश में 2399 पिछड़ी जातियों या समुदायों की एक सूची तैयार की, उनमें से 837 को ‘सबसे पिछड़ा’ के रूप में वर्गीकृत किया। आयोग ने 1961 की जनगणना में जातियों की गणना करने, सरकारी नौकरियों के विभिन्न स्तरों पर 25-40% आरक्षण और तकनीकी और व्यावसायिक संस्थानों में प्रवेश के लिए 70% आरक्षण प्रदान करने की भी सिफारिश की।
रिपोर्ट पर संसद में कभी चर्चा नहीं हुई और न ही इसे कभी लागू किया गया क्योंकि सरकार ने फैसला किया कि “केंद्र सरकार द्वारा तैयार की गई किसी भी अखिल भारतीय सूची की कोई व्यावहारिक उपयोगिता नहीं होगी।”
आयोग के एक सदस्य की असहमति के बावजूद मंडल कमीशन ने OBC के भीतर EBC को नहीं दी मान्यता
दूसरा ओबीसी आयोग: यह बीपी मंडल आयोग था, जिसे 1979 में मोरारजी देसाई की जनता सरकार द्वारा नियुक्त किया गया था। हालांकि इसके कार्यान्वयन की घोषणा 1990 में वीपी सिंह की सरकार द्वारा की गई थी।
मंडल आयोग ने 3,743 जातियों और समुदायों को ओबीसी के रूप में पहचाना, उनकी आबादी 52% होने का अनुमान लगाया, और सरकारी नौकरियों और सभी सरकार द्वारा संचालित वैज्ञानिक, तकनीकी और व्यावसायिक संस्थानों में प्रवेश में 27% आरक्षण की सिफारिश की।
27% ओबीसी कोटा के भीतर किसी भी उपश्रेणी को मान्यता नहीं दी गई। जबकि आयोग के सदस्यों में से एक, एलआर नाइक ने अपनी असहमति में कहा था कि ओबीसी को मध्यवर्ती पिछड़े वर्गों और दलित पिछड़े वर्गों में विभाजित किया जाना चाहिए।
मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के लिए केंद्र ने 25 सितंबर, 1991 को मेमोरेंडम जारी किया था, जिसमें कहा गया था कि सरकार पिछड़ों के भीतर गरीब वर्गों को प्राथमिकता देगी। हालांकि, केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद तय मानदंडों के आधार पर “क्रीमी लेयर” को छोड़कर पूरी ओबीसी आबादी को एक ब्लॉक के रूप में मानते हुए कोटा लागू किया।
भाजपा ने भी की थी कोशिश
उत्तर प्रदेश भाजपा ने भी एससी और ओबीसी को उपवर्गीकृत करने की कोशिश की थी। राजनाथ सिंह की भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने कोटा के भीतर कोटा प्रदान करने के लिए एससी और ओबीसी को उपवर्गीकृत करने के लिए एक सामाजिक न्याय समिति का गठन किया। हुकुम सिंह समिति ने यादवों को पिछड़ों में ‘अगड़े’ घोषित किया और जाटों जैसे अधिक प्रभावशाली समुदायों को उनके नीचे स्थान दिया। वहीं जाटवों को अनुसूचित जाति में शीर्ष पर रखा। रिपोर्ट को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई और मायावती के नेतृत्व वाली बसपा-भाजपा सरकार रिपोर्ट पर आगे नहीं बढ़ी।
सरकार जाने से पहले कांग्रेस ने भी की थी कोशिश
उत्तर और दक्षिण भारत, दोनों जगहों पर भूमि-स्वामित्व वाले ओबीसी ने कांग्रेस को छोड़ दिया है, पार्टी एक नए आधार की तलाश में थी। जैसे-जैसे 2014 का चुनाव नजदीक आया, भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने अपनी ओबीसी पहचान को रेखांकित करना शुरू कर दिया। 9 फरवरी, 2014 को मोदी ने कोच्चि में एक रैली में घोषणा कर दी कि पिछड़े और अति पिछड़े अगले 10 वर्षों तक भारत पर शासन करेंगे।
कुछ दिनों बाद, 13 फरवरी को केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (एनसीबीसी) को केंद्रीय सूची में ओबीसी के उपवर्गीकरण के मामले की जांच करने के लिए कहा। 2 मार्च 2015 को न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) वी ईश्वरैया की अध्यक्षता में एनसीबीसी ने सुझाव दिया कि ओबीसी को अत्यंत पिछड़ा वर्ग, अधिक पिछड़ा वर्ग और पिछड़ा वर्ग में उपवर्गीकृत किया जाना चाहिए।
सिफारिश लागू नहीं की गई और अक्टूबर 2017 में न्यायमूर्ति जी रोहिणी के तहत ओबीसी के उपवर्गीकरण के लिए एक नया आयोग गठित किया गया। रोहिणी आयोग ने इस साल 31 जुलाई को अपनी रिपोर्ट सौंपी, लेकिन उसका कंटेंट अभी सार्वजनिक नहीं किया गया है।