बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम की पहचान भले दलितों के रहनुमा के नाते रही हो पर उन्होंने अपने जीवन में कोई भी चुनाव अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीट से नहीं लड़ा। पंजाब के रोपड़ जिले के एक गांव में रमदसिया चमार जाति में 15 मार्च 1934 को जन्मे कांशीराम ने रोपड़ के सरकारी कालेज से 1956 में बीएससी की उपाधि हासिल की और पुणे स्थित केंद्र सरकार के एक संस्थान में प्रयोगशाला सहायक के नाते नौकरी शुरू की।
नौकरी के दौरान ही उन्होंने अनुसूचित जाति के कर्मचारियों को संगठित कर उनके हितों के लिए संघर्ष शुरू किया। फिर डीएस-4 की स्थापना की। जिसे बाद में बामसेफ में बदल दिया। जल्द ही उन्हें महसूस हुआ कि दलितों और वंचितों की भी अपनी राजनीतिक पार्टी होनी चाहिए। डाक्टर आंबेडकर के जन्मदिन पर 14 अप्रैल 1984 को कांशीराम ने दिल्ली के बोट क्लब पर बहुजन समाज पार्टी के गठन की घोषणा की।
अपने समर्थकों में मान्यवर के नाम से प्रसिद्ध कांशीराम ने पहला लोकसभा चुनाव 1984 में छत्तीसगढ़ की जांजगीर सीट से लड़ा। तब तक बसपा को चुनाव आयोग से राजनीतिक दल की मान्यता नहीं मिल पाई थी। नतीजतन कांशीराम को निर्दलीय हैसियत से चुनाव लड़ना पड़ा। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए इस मध्यावधि चुनाव में कांगे्रस की आंधी के चलते कांशीराम अपने जीवन का पहला चुनाव 32135 वोट लेकर कांग्रेस के प्रभात मिश्र से हार गए।
अमिताभ बच्चन ने इलाहबाद की लोकसभा सीट से त्यागपत्र दिया तो 1988 में इस सीट पर उपचुनाव हुआ। साझा विपक्ष की तरफ से कांग्रेस के बागी विश्वनाथ प्रताप सिंह उम्मीदवार थे। उनके मुकाबले कांग्रेस ने लाल बहादुर शास्त्री के बेटे सुनील शास्त्री को मैदान में उतारा। लाल बहादुर शास्Þत्री को वीपी सिंह अपना गुरू मानते थे। इस चुनाव में कांशीराम ने भी पर्चा दाखिल कर दिया। जीत विश्वनाथ प्रताप सिंह की हुई।
अगला चुनाव 1989 में हुआ तो कांशीराम ने इस बार दो सीटों से नामांकन किया। प्रधानमंत्री राजीव गांधी को उन्होंने अमेठी में चुनौती दी तो पूर्वी दिल्ली सीट पर उनका मुकाबला कांग्रेस के केंद्रीय मंत्री एचकेएल भगत से हुआ। कांशीराम को इस बार भी दोनों सीटों पर हार का मुंह ही देखना पड़ा। हालांकि 1989 में उनकी पार्टी के लोकसभा में चार सदस्य चुनकर आए थे। मायावती सहित तीन उत्तर प्रदेश से और हरभजन सिंह लाखा पंजाब की फिल्लौर सुरक्षित सीट से। कांशीराम चाहते तो इस सीट से आसानी से जीतकर संसद पहुंच सकते थे पर उन्होंने आरक्षित सीट से कभी चुनाव नहीं लड़ने का संकल्प ले रखा था।
कांशीराम पहली बार लोकसभा 1991 में इटावा से चुनाव लड़कर पहुंचे। पर इसके लिए उन्हें मुलायम सिंह यादव की मदद लेनी पड़ी। दरअसल 1991 के मध्यावधि चुनाव में मेरठ, बुलंदशहर और इटावा का लोकसभा व विधानसभा चुनाव मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने हिंसा के कारण रद्द कर दिया था। जो नवंबर 1991 में नए सिरे से हुआ। मुलायम सिंह यादव खुद जसवंत नगर सीट से विधानसभा चुनाव लड़ रहे थे। कांग्रेस के दर्शन सिंह यादव से उन्हें कड़ी चुनौती मिली थी। मुलायम तब चंद्रशेखर की पार्टी में थे।
इस पार्टी ने इटावा लोकसभा सीट पर अपने तबके सांसद रामसिंह शाक्य को ही उम्मीदवार बनाया था। मुलायम और कांशीराम ने एक दूसरे की मदद का संकल्प लिया। मुलायम ने यादवों के इस गढ़ में पार्टी के अधिकृत प्रत्याशी शाक्य की जगह कांशीराम के लिए वोट मांगे। बदले में कांशीराम ने जसवंत नगर सीट पर बसपा का कोई उम्मीदवार नहीं उतारा। इस तरह मुलायम विधानसभा व कांशीराम लोकसभा चुनाव जीत गए। शाक्य इस चुनाव में तीसरे नंबर पर आए।
मुलायम ने 1992 में अपनी अलग पार्टी सपा बनाई। उस समय उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार थी और कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे। बाबरी मस्जिद के ध्वंश के कारण कल्याण सिंह सरकार को केंद्र ने छह दिसंबर 1992 को बर्खास्त कर दिया था। कुछ दिन सूबे में राष्ट्रपति शासन रहा और फिर 1993 में विधानसभा का मध्यावधि चुनाव हुआ। इटावा के चुनाव की दोस्ती ने विधानसभा चुनाव में रंग दिखाया। बसपा और सपा ने यह चुनाव मिलकर लड़ा।
तब प्रदेश में राम लहर थी। लेकिन सपा-बसपा गठबंधन के ‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम’ नारे ने चमत्कार कर दिखाया। भाजपा की जगह मुलायम के नेतृत्व में सपा-बसपा गठबंधन की सरकार बनी। पर दो जून 1995 को लखनऊ में हुए गेस्ट हाऊस कांड के बाद बसपा ने सपा से नाता तोड़ लिया। भाजपा से बाहर से समर्थन लेकर मायावती सूबे की मुख्यमंत्री बन गई। हालांकि यह सरकार भी चार महीने ही चल पाई और 1996 में फिर चुनाव की नौबत आ गई।
सपा से दुश्मनी के चलते 1996 में कांशीराम इटावा छोड़ पंजाब चले गए। होशियारपुर से वे चुनाव जीतकर फिर लोकसभा पहुंचे। पर यह लोकसभा अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई। नतीजतन 1998 में फिर मध्यावधि चुनाव हुआ। इस बार कांशीराम सहारनपुर आ पहुंचे। लेकिन भाजपा के नकली सिंह गुर्जर ने उन्हें हरा दिया। इसके बाद कांशीराम ने लोकसभा चुनाव नहीं लड़ा। वे 1998 में ही राज्यसभा के सदस्य बन गए और 2004 तक इसी सदन में बने रहे। लंबी बीमारी के चलते दो साल बाद नौ अक्तूबर 2006 को कांशीराम का निधन हो गया।
कांशीराम ने बसपा को राष्ट्रीय राजनीतिक दल की मान्यता दिलाई। बसपा ने लोकसभा चुनाव में 1989 में चार, 1991 में तीन, 1996 में 11, 1998 में पांच, 1999 में 14, 2004 में 19 और 2009 में 21 सीटों पर जीत हासिल की। हरियाणा में 1998 में बसपा के अमन कुमार नागरा ने भाजपा के कद्दावर दलित नेता सूरजभान को हराया था तो 1996 में बसपा के सुखलाल कुशवाह ने मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री रहे कांग्रेसी धुरंधर अर्जुन सिंह को धूल चटा दी थी। कांशीराम के बाद मायावती के नेतृत्व में 2007 के विधानसभा और 2009 के लोकसभा चुनाव में बसपा का प्रदर्शन सर्वश्रेष्ठ रहा। लेकिन 2014 में मायावती के नेतृत्व में ही लोकसभा चुनाव में बसपा का खाता भी नहीं खुल पाया।