पल्लवी विनोद
कई बार सामूहिक उत्सवों के बीच कुछ ऐसी घटनाएं होती हैं, जो नतीजे में भले तात्कालिक हों, लेकिन उसका महत्त्व सबके दिल में ठहर जाता है। हाल ही में खत्म हुए ओलंपिक में हम सबने ऊंची कूद के फाइनल में तीस साल साल के बरशीम और उनतीस साल साल के टेम्बरी के बीच सिर्फ एक भावुक कर देने वाले उदार फैसले के साथ स्वर्ण पदक बांट लेने की बात सुनी। अपने-अपने देश के लिए ज्यादा से ज्यादा पदक आने की इच्छा करते जनमानस के बीच ऐसी खबरें आना कितना सुंदर है। जब हम पुरस्कार से ज्यादा इंसानियत को वरीयता देते हैं तो इस तरह के तमाम तमदे खुद ही झोली में आ गिरते हैं। बरशीम के अंतिम प्रयास से पीछे हटने और इस तरह टेम्बरी के साथ पदक बांट लेने के कदम ने उन्हें करोड़ों खेल प्रेमियों के दिल में अंकित कर दिया।
कहने का आशय यह है कि इंसानियत अभी भी प्रेम के सम्मोहन में है। हम चाहें कितना भी दौड़ लें, लेकिन सुस्ताने के लिए अपनों का साथ चाहते हैं। हमें आज भी ऊपरी चकाचौंध से ज्यादा आंतरिक खूबसूरती आकृष्ट करती है। हम आज भी इस पृथ्वी को नीला-हरा ही देखना चाहते हैं। इसकी हरीतिमा को बचाए रखने के लिए हमें आग नहीं, बारिश चाहिए। ऐसी बारिश, जिसमें भीगते ही हमारा मन प्रेम से सिक्त हो जाए। ऐसी बारिश जिसमें खेलते बच्चों को खिड़कियों के कांच टूटने और कपड़ों में लगे दाग की चिंता न हो। यह धरती अभी जीना चाहती है। अपने क्षितिज पर उगते सूरज को समंदर में डुबकी लगाते देखना चाहती है। अपनी शाखाओं पर बैठे परिंदों की चोंच में प्रेम से पगी चिट्ठियां बांचते देखना चाहती है।
अपनी जमीन को जिंदा रखने का पूरा दारोमदार हम पर है। प्रेम की सांसों को भर कर वापस प्रेम ही उड़ेलना पड़ेगा। यहां मौजूद बावड़ियों को प्रेम के मीठे जल से भरना होगा। आकाश के नीलेपन में गुलाबी प्रेम के गुब्बारे उड़ाने होंगे। नवजात पीढ़ी के मन में प्रतियोगिता से ज्यादा सहभागिता का भाव गढ़ना होगा। उन्हें सिखाना होगा कि आत्मप्रशंसा के इस दौर में उन्मुक्त कंठ से अपने मित्रों की प्रशंसा करें। खुद की हार को स्वीकार करने के लिए आपको जीतने वाले की विशेषता को भी स्वीकार करना होगा। खुरदुरे कठोर हाथों में कोमलता का स्पर्श भरना होगा। नहीं तो यह दुनिया पथरीली हो जाएगी। इस दुनिया को ‘कोडिंग’ नहीं, प्रेम का ककहरा सिखाना है। रोबोट बनते मनुष्य के भीतर फिर से मानवीय संवेदनाएं जगाने का समय आ गया है।
दुनिया में चाहे कितने भी बदलाव आ जाएं, लेकिन प्यास आज भी सादे पानी से ही बुझती है। जिस पानी की जरूरत हमें है, वही पानी इस प्रकृति में मौजूद हर प्राणी को चाहिए। इस पानी की जरूरत को पूरा करने के लिए हमें पानी के स्रोत ढूंढ़ने होंगे। अपने पास उपस्थित जल को दूसरों के लिए भी बचाना होगा। आपने कभी महसूस किया है कि कुछ जगहों पर हमारा मन खुद-ब-खुद डूबने लगता है, जैसे कि सब खत्म होने को है और कुछ जगहों पर हमारे कदम अनायास बढ़ते चले जाते हैं, जैसे कि कुछ हासिल होने को है!
इस दुनिया की हर जगह पर हमसे पहले भी कोई जा चुका है। किसी ने कुछ लम्हे वहां बिताए हैं। लोग तो उस जगह को छोड़ कर चले आते हैं, लेकिन उनकी स्मृतियां वहीं छूट जाती हैं। नवविवाहित जोड़ों ने जहां अपने जीवन का मधुमास बिताया हो, वहां दोबारा जाकर भी उन्हें वही गुलाबी अहसास होते हैं। मैं जब भी अपने बाबा के घर जाती हूं, लगता है कि वे और दादी वहीं बैठे हुए हैं। ऐसा लगता है दादी ठुमकते हुए आ रही हैं। उनके जाने के इतने बरसों बाद भी उनकी मुस्कुराहट वहां बिखरी पड़ी है। इसके विपरीत जिस स्थान से हमारी खराब यादें जुड़ी हुई हैं, वे हमें बेचैन करते हैं। प्रेम और स्नेह से भरे स्थान के संपर्क में आने वाले इंसान के अंदर भी प्रेम का प्रवाह होने लगता है। ठीक वैसे ही, जैसे हम किसी स्नेहिल इंसान के हृदय से लग कर खुद भी स्नेह से भर जाते हैं।
हमें इस दुनिया को प्रेम से भरना होगा। एक छोटे बच्चे की कल्पनाओं से सजी चित्रकारी की किताब को ध्यान से देखिएगा। हो सकता है उसमें बादलों का रंग नीला न होकर गुलाबी या पीला हो या सूरज का रंग तीखा न होकर शांत हो। कुछ ऐसा ही हमको भी करना होगा। भूलना होगा कि पैदा होते ही हमारे नाम के आगे लगे उपनाम में कितनी मात्राएं लगी हैं! हमें बस इतना याद रखना है कि हम इस धरती पर मौजूद सबसे बुद्धिमान प्राणी हैं जो दुनिया को सुंदर बनाने धरती पर आए हैं। हां, यह सब रंग भरने जितना आसान तो नहीं होगा, बहुत-सी रीतियों को तोड़ना होगा। नए रास्ते गढ़ने होंगे। लेकिन दुनिया को खूबसूरत बनाना एक अनुष्ठान से कम नहीं है। निजी स्वार्थ और अहंकार की आहुति देनी ही पड़ेगी। जब अकेले दशरथ माझी पहाड़ तोड़ कर रास्ता बना सकते हैं तो हम सब मिल कर इस दुनिया को थोड़ा सुंदर तो बना ही सकते हैं।