पिछले कुछ सालों के दौरान महिलाओं के खिलाफ अपराधों को लेकर जितनी चिंताएं जताई गई हैं, आंदोलन हुए हैं, सख्त कानूनों पर जोर दिया गया है, उस लिहाज से देखें तो इन अपराधों में कमी आनी चाहिए थी। लेकिन विडंबना यह है कि सख्ती और निगरानी के तमाम दावों के बावजूद हालात में कोई फर्क नहीं आया है और महिलाओं को रोज अपनी असुरक्षा के खौफ से गुजरना पड़ता है। हाल में आश्रय स्थलों से महिलाओं के शोषण-उत्पीड़न की जिस तरह की घटनाएं सामने आई हैं, वे गैरसरकारी संगठनों के साथ-साथ सरकारी महकमों के कामकाज की शैली पर तीखे सवाल उठाती हैं। ताजा घटना में पटना के एक आश्रय गृह में दो लड़कियों की संदिग्ध मौत से एक बार फिर इसी बात की पुष्टि होती है कि इन केंद्रों में क्या कुछ चल रहा है, सरकार या संबंधित महकमों को इसकी फिक्र नहीं है। दूसरी ओर, दिल्ली में भी एक बड़े आश्रय गृह में रहने वाली युवती के उसके कंप्यूटर शिक्षक द्वारा यौन उत्पीड़न की घटना सामने आई। इससे पहले मुजफ्फरपुर और देवरिया से लेकर मध्यप्रदेश के आश्रय गृहों से भी बच्चियों और महिलाओं के शोषण, उत्पीड़न, बलात्कार या फिर देह व्यापार में धकेले जाने की खबरें आ चुकी हैं। सवाल है कि अगर ये आश्रय स्थल सरकार की ओर से मिलने वाली आर्थिक मदद से संचालित होते हैं तो उन केंद्रों में कुछ गलत होने की जिम्मेदारी से सरकारें कैसे बच सकती हैं!

गौरतलब है कि कुछ बच्चियां और महिलाएं अपने जीवन के सबसे मुश्किल वक्त में इन आश्रय गृहों में शरण लेती हैं। लेकिन इनके संचालकों के लिए शायद उन महिलाओं की लाचारगी ही एक सुविधाजनक स्थिति है और इसका फायदा उठा कर वे उन्हें शोषण के कुचक्र में फंसा देते हैं। आश्रय स्थलों के संचालकों को जिस तरह इन अपराधों का मुख्य आरोपी माना गया है, शायद इन्हीं वजहों से ऐसे आरोप सामने आ रहे हैं कि कुछ गैरसरकारी संगठनों और उनके कर्ताधर्ताओं ने मदद के नाम पर महिलाओं के शोषण-उत्पीड़न और सौदेबाजी का ठिकाना बनाया हुआ था। पटना के जिस आसरा गृह में दो लड़कियों की संदिग्ध हालत में मौत की खबर आई है, उसके संचालकों की ऊंचे कद के राजनीतिकों से नजदीकी की खबरें यह बताने के लिए काफी हैं कि उन्हें मनमाने तरीके से कुछ भी गलत करके सुरक्षित रहने की ताकत कहां से मिलती है। मुजफ्फरपुर और देवरिया के आश्रय स्थलों के संचालकों के भी तार राजनीतिकों से जुड़े होने की खबरें सामने आई हैं। तो क्या इन्हीं वजहों से सरकारों ने आश्रय स्थलों और उनके संचालकों को निगरानी और जांच की सारी प्रक्रियाओं से अघोषित छूट देकर मनमानी करने के लिए छोड़ दिया?

इस अफसोसनाक हालत पर सुप्रीम कोर्ट ने गहरी चिंता जताते हुए आश्रय स्थलों के सोशल ऑडिट कराने का आदेश जारी किया था। लेकिन बाल अधिकार संरक्षण आयोग के मुताबिक बिहार और उत्तर प्रदेश सहित हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल और केरल जैसे कई राज्यों ने बाल गृहों में सोशल ऑडिट का विरोध किया। जो काम कराना खुद राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है, अदालत के आदेश के बावजूद उसे लेकर हिचक के क्या कारण हो सकते हैं? देश भर में महिलाओं के खिलाफ अपराधों के मामले में तस्वीर वैसे भी अफसोसनाक है। अलग-अलग वजहों से मुश्किल हालात का सामना करने वाली बच्चियों ने आश्रय स्थलों में शरण लेते हुए कम से कम वहां सहज और सुरक्षित जीवन की ही कल्पना की होगी। लेकिन उन जगहों पर भी उन्हें जिस तरह शोषण, बलात्कार और यातना का शिकार होना पड़ा, वह इन अपराधों के उस चेहरे का उदाहरण है जिसमें रखवाला ही लुटेरा बन जाता है।