इसमें कोई दोराय नहीं कि महिलाओं को घरेलू हिंसा और अन्य प्रकार के उत्पीड़न से बचाने के लिए जो कानून बने हैं, वे अपने उद्देश्य और प्रभाव के स्तर पर वास्तव में लागू होने चाहिए। मगर इन कानूनों के पालन के साथ यह जिम्मेदारी भी जुड़ी हुई है कि जाने या अनजाने इस कानून का किसी रूप में दुरुपयोग न हो। विडंबना यह है कि कई बार कानूनों का इस्तेमाल मुख्य आरोपी के साथ ही ऐसे लोगों पर भी कर दिया जाता है, जो संबंधित मामले में भागीदार नहीं होते। ऐसे मामलों में अगर किन्हीं वजहों से ऐसे आरोप गलत साबित होते हैं, तो न केवल पीड़ित को असुविधाजनक स्थिति का सामना करना पड़ता है, बल्कि कानूनों के बेजा इस्तेमाल का सवाल भी उठता है।
शायद यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को एक मामले की सुनवाई के दौरान घरेलू हिंसा के मामलों से अत्यंत संवेदनशीलता के साथ निपटने की जरूरत पर जोर दिया और कहा कि किसी आरोपी के परिवार के सदस्यों को आपराधिक मामले में विशिष्ट आरोप के बिना व्यापक रूप से नहीं घसीटा जा सकता।
महिलाओं के उत्पीड़न की रोकथाम के लिए बने कानूनों का मकसद समाज में महिलाओं के खिलाफ कई स्तर पर पलने वाले हिंसक रवैये से उन्हें सुरक्षा देना है। अगर किन्हीं हालात में महिलाओं के खिलाफ उत्पीड़न की घटना होती है और पीड़ित उन्हीं कानूनों का सहारा लेकर न्याय की मांग करती है, तो यह स्वाभाविक है। लेकिन अगर इस क्रम में कठघरे में वैसे लोग भी आ जाएं, जिनकी कोई भूमिका न हो, तो ऐसे में कानूनों के इस्तेमाल को लेकर सवाल उठते हैं।
उत्पीड़न के समय पीड़ित को बचाने के लिए आगे न आने पर संवेदनशीलता, मानवीयता और जिम्मेदारी के सवाल उठाए जा सकते हैं, लेकिन इसके लिए किसी को कानून के कठघरे में खड़ा करने की मंशा को उचित नहीं कहा जा सकता। हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि सामाजिक पूर्वाग्रहों की वजह से कई बार ऐसे हालात पैदा होते हैं, जिनकी शिकार महिलाएं होती हैं। ऐसे में कानून का सहारा लेने के मामले में ईमानदारी के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी अहम है।