गुजरात में स्थानीय निकायों के चुनाव नतीजों पर भाजपा संतोष जरूर कर सकती है, पर एक तरह से इसे उसके अभेद्य दिखते किले की दीवारों का दरकना भी कहा जा सकता है। बड़े शहरों में भारी जीत के साथ भाजपा यह दावा कर सकती है कि चुनावों के पहले उसकी कामयाबी को लेकर जताई जाने वाली आशंकाएं बेमानी साबित हुई हैं। लेकिन किसी भी राज्य में केवल शहरी इलाकों में मिले समर्थन से कोई पार्टी पूरी तरह सफल होने का दावा नहीं कर सकती। गुजरात में जिस तरह जिला पंचायतों, कस्बों और ग्रामीण इलाकों में लंबे समय बाद कांग्रेस ने जोरदार वापसी की है, वह भाजपा के लिए चिंता की बात है। सभी छह महानगरों में नगर निगम की सीटों पर भाजपा को जीत मिली है। पर इस बार नया यह हुआ कि राजकोट में कांग्रेस ने उसे अंत तक कड़ी टक्कर दी। यहां की बहत्तर में से अड़तीस सीटों पर भाजपा को और चौंतीस पर कांग्रेस को जीत मिली।
दूसरी ओर, इकतीस जिला पंचायतों में भाजपा ने छियासी और कांग्रेस ने एक सौ अड़तीस सीटें जीत लीं। इसके अलावा, दो सौ तीस तालुका पंचायतों की पांच सौ सीटें कांग्रेस ने जीतीं और भाजपा को महज तीन सौ इक्यानवे सीटों पर कामयाबी मिली। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह जिले मेहसाणा में भी भाजपा को हार का सामना करना पड़ा। वहां पंचायत और नगरपालिका, दोनों पर कांग्रेस ने दबिश दी। समझा जा सकता है कि भाजपा के लिए स्थितियां अब पहले की तरह अनुकूल नहीं रही हैं। गौरतलब है कि गुजरात में हार्दिक पटेल के नेतृत्व में पाटीदार आरक्षण की मांग के लिए आंदोलन यहीं से शुरू हुआ था। लेकिन हार्दिक पटेल का असर उनके अपने ही गांव वीरमगाम में नहीं दिखा और वहां भाजपा जीती।
जो हो, लंबे समय से जिस तरह राज्य में भाजपा का शासन रहा है और सत्ता-संघर्ष में दूसरे राजनीतिक दलों की भागीदारी सिमटती गई थी, उसमें ताजा नतीजे एक ठहराव को तोड़ते दिखते हैं। गुजरात में यह चुनाव पटेल आरक्षण की मांग को लेकर चले व्यापक आंदोलन की पृष्ठभूमि में हुआ। इस आंदोलन की तीव्रता को देखते हुए पहले ही माना जा रहा था कि भाजपा को इसका खमियाजा भुगतना पड़ सकता है। इस लिहाज से देखें तो कांग्रेस की वापसी में इस आंदोलन की भी भूमिका रही है, लेकिन नतीजों को प्रभावित करने वाला संभवत: यह अकेला तत्त्व न हो। आनंदी बेन पटेल प्रशासनिक और राजनीतिक मोर्चे पर शायद उतना कुछ नहीं कर पार्इं, जो भाजपा के आधार-समर्थन को बनाए रख सके।
फिर बीते साल भर में पहले दिल्ली और फिर बिहार में भाजपा को बुरी हार का सामना करना पड़ा और उसके सबसे बड़े आकर्षण के रूप में नरेंद्र मोदी की चमक फीकी पड़ने की भी बातें होने लगीं। हालांकि स्थानीय निकायों के चुनाव में किसी पक्ष की जीत-हार में स्थानीय मुद्दे ही काम करते हैं, लेकिन अगर दिल्ली और बिहार की हार के मिले-जुले असर से उठी हवा ने गुजरात को भी अपनी जद में लिया है तो यह भाजपा के लिए चिंता की बात है। अगर यही स्थिति रही तो दो साल बाद वहां होने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा के लिए हालात शायद अनुकूल न रहें। यों भी, पिछले कुछ सालों में पंचायत और स्थानीय निकायों के चुनाव नतीजे कई राज्यों में भावी विधानसभा के लिए भी संकेत साबित हुए हैं।