सर्वोच्च न्यायालय ने कर्ज न चुकाने वाले बड़े बकाएदारों के नाम सार्वजनिक करने का आदेश देकर बैंकिंग व्यवस्था की पारदर्शिता के हक में बड़ा कदम उठाया है। अदालत का यह फैसला ऐतिहासिक महत्त्व का है और इससे एनपीए यानी गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों की समस्या से निपटने में मदद मिलेगी।

यों रिजर्व बैंक खुद एनपीए को लेकर समय-समय पर चिंता जताता रहा है और उसने इस बारे में सरकारी बैंकों को कुछ निर्देश भी जारी कर रखे हैं। लेकिन रिजर्व बैंक कभी इस पक्ष में नहीं रहा कि बड़े डिफाल्टरों के नाम सार्वजनिक किए जाएं। इस बारे में जानकारी मांगने के लिए दिए गए आवेदनों को सूचनाधिकार अधिनियम की धारा आठ का हवाला देकर उसने खारिज कर दिया था। मगर केंद्रीय सूचना आयोग ने रिजर्व बैंक के इस रवैए को गलत ठहराते हुए उसे सूचनाएं मुहैया कराने को कहा। तब भी रिजर्व बैंक ने इसे स्वीकार नहीं किया।

आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय सूचना आयोग के फैसले पर मुहर लगा दी है। आयोग के फैसले के खिलाफ रिजर्व बैंक की दलील थी कि बड़े डिफाल्टरों के नाम उजागर करने से देश के आर्थिक हित आहत होंगे। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने यह दलील स्वीकार नहीं की। उसने रिजर्व बैंक का यह तर्क भी खारिज कर दिया कि डिफाल्टरों के नामों का खुलासा करने पर बैंकों के साथ गोपनीयता और विश्वास के उसके संबंध को ठेस पहुंचेगी। इस तरह सर्वोच्च न्यायालय ने एनपीए के कच्चे चिट्ठे को सूचनाधिकार के दायरे में ला दिया है। अब बड़े-बड़े डिफाल्टर छिपे नहीं रह सकेंगे, न रिजर्व बैंक उनके गुनाहों पर परदा डाल सकेगा।

निश्चय ही इससे बैंकिंग व्यवस्था अधिक पारदर्शी और जवाबदेह बनेगी। अर्थव्यवस्था को भी इससे लाभ ही होगा।
सर्वोच्च अदालत का यह फैसला ऐसे वक्त आया है जब सरकारी बैंकों का एनपीए बढ़ते-बढ़ते तीन लाख करोड़ रुपए से ऊपर पहुंच गया है। अगर कोई साधारण व्यक्ति कुछ महीने तक बैंक-कर्ज की किस्त न चुकाए तो उसके खिलाफ कार्रवाई होती है, कुर्की भी हो सकती है। लेकिन कई बड़े बकाएदार, जिन पर कुछ करोड़ से लेकर सैकड़ों-हजारों करोड़ तक बकाया होता है, बरसों-बरस ब्याज या मूल धन की किस्त नहीं चुकाते, फिर भी कार्रवाई से बचे रहते हैं। यही नहीं, उनकी गुजारिश पर उनके कर्जों का ‘पुनर्गठन’ कर दिया जाता है।

इस तरह चुकाने की सहूलियत के नाम पर उन्हें भारी रियायत दे दी जाती है। सरकारी बैंकों के कई बड़े कर्जों का तो इससे भी बुरा हश्र होता है, डूबी हुई रकम मान कर उन्हें बट्टेखाते में डाल दिया जाता है। कई डिफाल्टर नए कर्ज पाने में भी सफल हो जाते हैं। एनपीए बढ़ने से बैंकों की आय कम होती है। उनके पास कारोबार के लिए पूंजी भी कम हो जाती है। इससे कई अहम परियोजनाओं को या तो कर्ज पाने के लिए इंतजार करना पड़ता है या उन्हें कर्ज में पर्याप्त रकम नहीं मिल पाती है। क्षतिपूर्ति के लिए बैंक नए कर्जों पर ब्याज दर बढ़ा सकते हैं, जिसका खमियाजा ग्राहकों को भुगतना पड़ता है।

दरअसल, आर्थिक विकास में बाधा डिफाल्टरों के नाम सार्वजनिक करने की इजाजत देने से नहीं, बल्कि कर्जों की वसूली रुकने और एनपीए बढ़ने से आती है। सरकारी बैंकों का एनपीए जहां तक पहुंच गया है उससे ऋण-मंजूरी की उनकी प्रक्रिया पर सवाल उठना स्वाभाविक है। सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले ने एक बार फिर एनपीए को बहस का विषय बना दिया है। सरकार को चाहिए कि इस समस्या की तह में जाकर उससे तेजी से और कारगर ढंग से निपटने की रणनीति बनाए।