अमेरिकी संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने आतंकवाद के खिलाफ कड़े कदम उठाने की जरूरत रेखांकित की। पाकिस्तान का नाम लिए बगैर उन्होंने याद दिलाया कि विश्व व्यापार संगठन की मीनारों पर हमले के दो दशक से अधिक और मुंबई पर आतंकी हमले के एक दशक से अधिक समय बीत जाने के बावजूद आतंकवाद को प्रायोजित करने वालों पर नकेल न कसी जाने के कारण आज भी कट्टरपंथ और आतंकवाद पूरी दुनिया के लिए नासूर बना हुआ है। इसके लिए प्रधानमंत्री ने अमेरिका से आह्वान किया कि वह आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई को तेज करे।
टेररिज्म के खिलाफ दोनों देशों को मिलकर जंग लड़ने की जरूरत पर बल
अमेरिकी राष्ट्रपति ने भी अल-कायदा, इस्लामिक स्टेट, लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद और हिजबुल मुजाहिदीन समेत संयुक्त राष्ट्र में सूचीबद्ध तमाम आतंकी संगठनों के खिलाफ समन्वित कार्रवाई की जरूरत पर बल दिया। निस्संदेह चरमपंथ की चोट इस समय दुनिया के ज्यादातर देशों पर पड़ रही है। भारत को लगातार इसका सामना करना पड़ता है। कश्मीर घाटी में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के चलते भारत में लगातार अस्थिरता बनी रहती है। अमेरिका ने भी बड़ा जख्म खाया है, जब उसकी विश्व व्यापार संगठन की जुड़वां मीनारों को ध्वस्त कर दिया गया। तब अमेरिका ने दुनिया भर के देशों से आह्वान किया था कि वे मिल कर आतंकवाद से लड़ें। अब फिर से उसने इस जरूरत पर बल दिया है।
छिपी बात नहीं है कि दुनिया में सबसे अधिक आतंकी संगठनों को पाकिस्तान ने पनाह दे रखी है। वहां की खुफिया एजंसी आइएसआइ और सरकार खुद कट्टरपंथी और चरमपंथी ताकतों को प्रोत्साहित करने का काम करते हैं। इसके अनेक सबूत मौजूद हैं। भारत पर हुए तमाम बड़े आतंकी हमलों से जुड़े दस्तावेज वैश्विक मंचों पर साझा हैं। मगर जब भी उसके खिलाफ संयुक्त कार्रवाई की बात आती है, तो अलग-अलग देशों के अपने स्वार्थ काम करने लगते हैं।
यह भी सब जानते हैं कि पाकिस्तान में चरमपंथी गतिविधियों को प्रश्रय देने का काम खुद अमेरिका ने किया था, इसलिए कि वह उसकी जमीन से चीन और भारत को साधना चाहता था। मगर पाकिस्तान ने उससे किनारा कर लिया और फिर चीन से नजदीकी बढ़ा ली। इस समय चीन उसकी सुरक्षा में लगा साफ नजर आता है। जब भी वहां के किसी आतंकी संगठन या दहशतगर्द पर प्रतिबंध लगाने की बात संयुक्त राष्ट्र में उठती है, चीन अकेले उसके समर्थन में खड़ा हो जाता है।
इस तरह वहां कई संगठन महफूज बने हुए हैं। इस समय चूंकि भारत और अमेरिका की नजदीकी बढ़ने से चीन को चुनौती मिलने की बात कही जा रही है, आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में चीन का साथ मिलना कठिन ही है।
दरअसल, आतंकवाद को महाशक्तियों ने ही अपने स्वार्थ के लिए पोसा, प्रोत्साहित किया है। इस तरह जहां उन्हें अपना स्वार्थ नजर आता है, वहां वे अच्छे और बुरे आतंकवादी का भेद करना शुरू कर देते हैं। इस तरह आतंकवाद के विरुद्ध जो लड़ाई अमेरिका ने करीब बीस साल पहले छेड़ी थी, वह किसी निर्णायक मोड़ पर नहीं पहुंच पाई। यही वजह है कि जब भी भारत कश्मीर में दहशतगर्दी का मुद्दा उठाता है, तो ज्यादातर देश तटस्थ नजर आने लगते हैं। ऐसे में आतंकवाद के खिलाफ समन्वित लड़ाई कमजोर पड़ जाती है। भारत को अकेले ही इससे निपटना पड़ता है। मगर सभी देश मिल कर अगर पाकिस्तान पर नकेल कसें, तो निश्चित रूप से आतंकवाद को समाप्त करने में कामयाबी मिल सकती है।