विपक्षी नेताओं को सबक सिखाने के मकसद से इन एजंसियों का इस्तेमाल कर रही है। अब सर्वोच्च न्यायालय ने उस आरोप पर जैसे मुहर लगा दी है। शिवसेना के राज्यसभा सांसद संजय राउत की जमानत मंजूर करते हुए अदालत ने प्रवर्तन निदेशालय को फटकार लगाई और कहा कि यह गिरफ्तारी अवैध है।

हालांकि प्रवर्तन निदेशालय ने अदालत के इस फैसले पर पुनर्विचार की गुहार लगाई, पर उसे खारिज कर दिया गया। अदालत ने यह भी कहा कि मामले के मुख्य आरोपियों को आज तक गिरफ्तार नहीं किया गया और राउत के खिलाफ पुख्ता सबूत न होने के बावजूद आनन-फानन गिरफ्तार कर लिया गया। इससे सरकार पर विपक्ष को हमला बोलने का एक और मौका मिल गया है।

फिर, यह अकेला मामला नहीं है, जिसमें किसी विपक्षी नेता को प्रवर्तन निदेशालय या आयकर विभाग जैसी दूसरी एजंसियों द्वारा गिरफ्तार किया गया। राउत को तीन महीने से ऊपर जेल में बिताना पड़ा। इससे यह भी सवाल उठाया जा रहा है कि एक राज्यसभा सांसद को प्रवर्तन निदेशालय जब इस तरह अवैध ढंग से गिरफ्तार कर सकता है, तो दूसरे लोगों के बारे में उसके रवैए का अंदाजा लगाया जा सकता है।

प्रवर्तन निदेशालय और आयकर विभाग जैसी जांच एजंसियां यों तो स्वतंत्र रूप से काम करती बताई जाती हैं, मगर पिछले कुछ सालों से जिस तरह लक्ष्य करके विपक्षी दलों के नेताओं पर ही शिकंजा कसने का प्रयास करती देखी जा रही हैं, उसे लेकर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। कई मामलों में आरोपियों को जमानत मिल चुकी है।

हालांकि कई ऐसे गंभीर मामले हैं, जिनमें सत्तापक्ष के नेता आरोपी हैं, मगर उनके खिलाफ आज तक जांच की जरूरत नहीं समझी गई। कई नेता जो पहले दूसरे दलों में थे और उन पर किसी बड़े घोटाले या भ्रष्टाचार में शामिल होने के आरोप हैं, पर वे सत्तारूढ़ दल में शामिल हो गए, तो उन पर भी चुप्पी साध ली गई। अगर जांच एजंसियां सचमुच स्वतंत्र और निष्पक्ष होकर काम करतीं, तो इस तरह पक्षपातपूर्ण रवैया अख्तियार नहीं करतीं। हालांकि यह कोई नई बात नहीं है कि केंद्र में सत्तारूढ़ दल जांच एजंसियों का अपने मकसद के लिए इस्तेमाल कर रहा है। पहले की सरकारों पर भी यह आरोप लगता रहा है। मगर इस आधार पर जांच एजंसियों को अपने कर्तव्य से मुंह फेर लेने का आधार नहीं मिल जाता।

अच्छी बात है कि सर्वोच्च न्यायालय ने ताजा मामले में प्रवर्तन निदेशालय को फटकार लगाते हुए उसका कर्तव्य याद दिलाया। हालांकि निदेशालय इसे कब तक याद रख पाएगा, दावा नहीं किया जा सकता। पर कम से कम उससे यह उम्मीद तो की जा सकती है कि किसी भी मामले में जांच करते हुए पुख्ता सबूतों के बिना किसी की गिरफ्तारी न करे।

इस तरह किसी को महज इस मकसद से गिरफ्तार कर लेना कि उसका मनोबल तोड़ा और सत्तापक्ष की तरफ झुकाया तथा दूसरों का भयादोहन किया जा सकता है, जांच एजंसियों के लिए नैतिक रूप से उचित नहीं कहा जा सकता। सरकार तो शायद ही इस मामले से कोई सबक ले, पर जांच एजंसियों को जरूर अपनी मर्यादा का ध्यान रखने की जरूरत है। बिना किसी आधार के किसी को गिरफ्तार करने से जो उसका समय बर्बाद होता, उसके मन पर प्रतिकूल असर पड़ता और समाज में छवि खराब होती है, उसकी भरपाई भला कौन करेगा। इसकी जवाबदेही किस पर होनी चाहिए।