किसी भी विरोध प्रदर्शन में अगर लोकतांत्रिक तरीके से अपनी मांगें सामने रखी जाएं, तो उसके अंजाम तक पहुंचने और सर्वमान्य हल निकलने की उम्मीद की जा सकती है। विडंबना यह है कि कई बार मुद्दे सुलगते रहते हैं और सरकार को वक्त पर उसका समाधान निकालने की जरूरत महसूस नहीं होती। वहीं लंबे वक्त तक टालमटोल या कोताही आखिरकार असंतोष की स्थिति पैदा करती है। फिर जब प्रतिक्रिया का स्वरूप अनियंत्रित और अराजक होता है, तब कई बार उसे संभालना मुश्किल हो जाता है। लेह में बुधवार को हुई हिंसा इन्हीं स्थितियों का नतीजा लगती है।

गौरतलब है कि लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा देने और संविधान के अनुच्छेद 244 के तहत छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग को लेकर लेह में लोग आंदोलन पर उतरे हुए थे। पर्यावरण कार्यकर्ता सोनम वांगचुक भी दो हफ्ते से भूख हड़ताल पर थे। मगर बुधवार को यह प्रदर्शन हिंसक हो उठा और लोगों ने भाजपा कार्यालय को भी आग के हवाले कर दिया। इसके बाद पुलिसकर्मियों के साथ हुई झड़पों के दौरान कई की जान चली गई और काफी लोग घायल हो गए।

सवाल है कि अपनी मांगों के साथ कई दिनों से शांतिपूर्ण तरीके से आंदोलन कर रहे लोगों के सामने आखिर कैसी स्थिति पैदा हुई कि उन्होंने हिंसक रास्ता अख्तियार कर लिया। पिछले कई दिनों से वहां जैसे शांतिपूर्ण हालात थे, उसमें अराजकता को अचानक उपजी किसी स्थिति का नतीजा मानना थोड़ा मुश्किल लगता है। खासतौर पर जब पूर्ण राज्य का दर्जा और छठी अनुसूची में शामिल करने का सवाल नया नहीं हो। इसके अलावा, लेह और करगिल के लिए अलग-अलग लोकसभा सीटें तय करने और रोजगार में आरक्षण की मांग भी अहम मुद्दे हैं।

दरअसल, अनुच्छेद 370 खत्म होने के बाद केंद्र सरकार की ओर यह आश्वासन दिया गया था कि लद्दाख को राज्य का दर्जा दिया जाएगा। इस बात को करीब पांच वर्ष हो गए, लेकिन अब भी इस पर स्थानीय समूहों- लद्दाख एपेक्स बाडी और करगिल लोकतांत्रिक गठबंधन के साथ सिर्फ बातचीत ही चल रही है। आखिर केंद्र सरकार की घोषणाओं के समांतर लद्दाख के लोगों की स्पष्ट मांगों के बावजूद सबसे संवेदनशील और जरूरी मुद्दों पर बातचीत के जरिए शांतिपूर्ण तरीके से हल निकालने को लेकर सहमति बनाने को प्राथमिकता क्यों नहीं दी गई?

सच यह है कि जब प्रमुख मांगों को पूरा करने या समस्या का सर्वमान्य हल निकालने को लेकर कोताही बरती जाती है और टालमटोल किया जाता है, तो उससे जुड़े अन्य मुद्दे भी अपना असर डालने लगते हैं। पिछले पांच वर्षों के दौरान वहां बेरोजगारी एक जटिल समस्या बन कर उभरी है। ऐसी शिकायतों ने वहां तूल पकड़ा है कि अलग-अलग बहाने बना कर स्थानीय लोगों को नौकरियों से बाहर रखा जा रहा है और लद्दाख को संरक्षण भी नहीं दिया जा रहा।

ऐसे में स्थानीय लोगों, खासकर रोजगार की उम्मीद में वक्त काटते युवाओं के बीच स्वाभाविक रूप से असंतोष ने जड़ें जमाना शुरू किया। इस तरह की संवेदनशील स्थितियों से अगर समय पर नहीं निपटा जाए, तो कुछ समय बाद उन्हें संभालना मुश्किल होता है। लेह में भड़की हिंसा की तुलना कुछ लोगों ने नेपाल के ‘जेन-जी’ से करने की कोशिश की है। बेहतर हो कि हमारे देश में अराजकता की स्थिति न उपजे। इसलिए जरूरत इस बात की है कि सरकार बिना देर किए आंदोलनकारियों की मुख्य मांगों और समस्या के मूल बिंदुओं पर विचार करके एक ठोस और सर्वमान्य हल तक पहुंचे, ताकि अवांछित तत्त्वों की किसी साजिश को पांव जमाने का मौका न मिले।