कहते हैं कि व्यक्ति में प्रतिभा, सूझबूझ और लगन के साथ-साथ व्यक्तित्व में सौम्यता और सहयोग का मेल हो तो उसकी लोकप्रियता चतुर्दिक फैलती है। अरुण जेटली ऐसे ही नेताओं में थे। वे एक पार्टी की विचारधारा को समर्पित अवश्य थे, पर दूसरे दलों में भी उनके दोस्त थे। पार्टी के भीतर भी वे सबके चहेते रहे। उनके लिए पार्टी महत्त्वपूर्ण थी, इसलिए जब भी कभी, चाहे विपक्ष के नेता की भूमिका में या फिर सरकार में रहते हुए पार्टी का पक्ष मजबूती से रखने की जरूरत पड़ी, अरुण जेटली हमेशा आगे रहते थे। उन्होंने विद्यार्थी जीवन से ही दक्षिणपंथी विचारधारा अपना ली थी। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के बैनर तले उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ का चुनाव लड़ा और अध्यक्ष चुने गए। उसके बाद अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की राष्ट्रीय इकाई के सचिव और दिल्ली इकाई के अध्यक्ष चुने गए। फिर उन्होंने वकालत शुरू की। 1980 में उन्होंने भाजपा की सदस्यता ग्रहण की और पार्टी की गतिविधियों में सक्रिय हो गए थे। इस तरह पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने में अथक योगदान करने वाले नेताओं में अरुण जेटली भी थे।
अरुण जेटली कानून के जानकार तो थे ही, उन्हें राजनीतिक रणनीति बनाने में भी महारत हासिल थी। यही वजह है कि पार्टी के हर नीतिगत मामले में उनकी सलाह ली जाती थी। मृदुभाषी थे और स्पष्टता से अपनी बात रखने का कौशल उनमें था। जब अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई में सरकार बनी तो उन्हें सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपी गई। फिर दूसरी बार उन्हें कानून और कंपनी मामलों का कार्यभार सौंपा गया। उन्होंने बड़ी कुशलता से अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह किया। जब पार्टी सरकार में नहीं रही और वे राज्यसभा के सदस्य थे, तब उन्हें सदन में विपक्ष के नेता की जिम्मेदारी सौंपी गई। उस दौरान वे बड़ी मजबूती और तार्किक ढंग से पार्टी का पक्ष रखते रहे। सदन में सत्ता पक्ष को घेरने का कोई मौका उन्होंने नहीं गंवाया।
अरुण जेटली उस वक्त ज्यादा महत्त्वूर्ण भूमिका में उभर कर आए, जब केंद्र में नरेंद्र मोदी की अगुआई में सरकार बनी। उस वक्त पार्टी के दो कद्दावर नेता नेतृत्व कर पाने के मामले में एक तरह से अशक्त थे। अटल बिहारी वाजपेयी इस स्थिति में नहीं थे कि पार्टी को कोई सुझाव या रणनीति दे सकें। लालकृष्ण आडवाणी का स्वास्थ्य भी कुछ ठीक नहीं था। फिर नरेंद्र मोदी दिल्ली की राजनीति से उतने परिचित नहीं थे। ऐसे में अरुण जेटली ने हर मोर्चे पर सरकार के कामकाज में मदद की। उन्हें वित्तमंत्री की बहुत गंभीर जिम्मेदारी सौंपी गई थी। तब अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर कई चुनौतियां थीं। देश कई महाघोटालों के दौर से गुजर चुका था। ऐसी स्थिति में अरुण जेटली ने अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर लगातार बदलाव किए। जीएसटी लागू किया। फिर जीएसटी में कर की दरों को लेकर जब-जब बदलाव करने की जरूरत महसूस की गई, वह किया और उसे संतोषजनक स्तर पर ले आए। इस तरह महंगाई गिर कर दो फीसद के स्तर तक पहुंच गई, जिसमें निरंतर गिरावट दर्ज होती रही। इसके अलावा जब भी सरकार का पक्ष रखना हुआ, चाहे वह रफाल सौदा हो या वित्त या गृह से संबंधित दूसरे मामले, वे अगली धार में खड़े दिखे। उनके जाने से निस्संदेह भाजपा और सूझबूझ की राजनीति को बड़ा धक्का पहुंचा है।