कोलकाता में रविवार को सीबीआइ और राज्य पुलिस के बीच जो कुछ हुआ, वह हैरान करने वाली घटना है। सीबीआइ के चालीस सदस्यों का दल सारदा चिटफंड घोटाले की जांच के सिलसिले में कोलकाता के पुलिस कमिश्नर के घर पर छापा मारने पहुंचा था, लेकिन स्थानीय पुलिस ने सीबीआइ टीम को पुलिस आयुक्त के आवास में घुसने नहीं दिया। पुलिस सीबीआइ के पांच अफसरों को अपने साथ थाने ले गई और कुछ घंटे तक वहीं बिठाए रखा। मामला तब और गरमा गया जब इस घटना के तत्काल बाद स्थानीय पुलिस ने कोलकाता स्थित सीबीआइ के दफ्तर को अपने कब्जे में ले लिया। इसके बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय के निर्देश पर सीबीआइ के कोलकाता दफ्तर के बाहर सीआरपीएफ तैनात कर दी गई। हालात तब और गंभीर हो गए जब राज्य की मुख्यमंत्री सीबीआइ की कार्रवाई के विरोध में धरने पर बैठ गईं और केंद्र-राज्य के बीच सियासी पारा तेजी से चढ़ना लगा। कोलकाता की यह घटना एक तरह से केंद्र और राज्य के बीच शक्ति-परीक्षण में तब्दील हो गई और इसके दूरगामी संदेश अच्छे नहीं कहे जा सकते।
इस घटना के राजनीतिक पहलू जो हों, लेकिन सीबीआइ और पुलिस के बीच टकराव को लेकर जो सवाल उठे हैं, वह गंभीर बात है। पुलिस और सीबीआइ के अधिकारी अच्छी तरह से उन नियम-कानूनों को जानते-समझते हैं जिनके तहत जांच और छापे जैसी कार्रवाई को अंजाम दिया जाता है। तो फिर टकराव की नौबत आनी ही नहीं चाहिए थी। अगर जांच एजेंसी स्वाभाविक रूप से अपना काम कर रही थी तो उसे करने दिया जाना चाहिए था। लेकिन सवाल सीबीआइ के अधिकार को लेकर उठा है। राज्य सरकार ने पिछले साल 16 नवंबर को दिल्ली पुलिस एस्टेब्लिशमेंट एक्ट के तहत सीबीआइ को दी गई मान्यता और सहमति वापस ले ली थी। इसके बाद कार्रवाई का सीबीआइ का अधिकार खत्म हो जाता है। क्या सीबीआइ के अफसरों को यह कानूनी पेंच पता नहीं रहा होगा! पुलिस कमिश्नर के खिलाफ तलाशी के लिए सीबीआइ को पहले राज्य सरकार से इजाजत लेनी थी, जो उसने नहीं ली। इसी को राज्य सरकार ने मुद्दा बना लिया।
कोलकाता के मौजूदा पुलिस कमिश्नर खुद उस विशेष जांच दल के प्रमुख थे जिसने सारधा चिटफंड घोटाले की जांच की थी। उन पर सबूत नष्ट करने का आरोप है, इसलिए सीबीआइ उनके घर पर तलाशी के लिए पहुंची थी। सीबीआइ सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर ही इस मामले की जांच कर रही है। सीबीआइ का कहना है कि कई नोटिसों के बाद भी पुलिस कमिश्नर जांच में मदद नहीं कर रहे, इसलिए उसे इस कार्रवाई का फैसला करना पड़ा था। इस मामले में सीबीआइ ने अब सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। लेकिन इस पूरे घटनाक्रम ने जो सबसे बड़ा सवाल खड़ा किया है वह यह कि अगर राज्य दिल्ली पुलिस एस्टेब्लिशमेंट एक्ट के तहत सीबीआइ को दी गई मान्यता और सहमति वापस लेने जैसा कदम उठाने लगे और किसी भी मामले को राजनीति से प्रेरित बताते हुए उसमें शामिल लोगों की जांच की इजाजत नहीं दें तो सीबीआइ गंभीर घोटालों और मामलों की जांच कैसे कर पाएगी? फिर तो राज्य जिसके खिलाफ जांच कराना चाहें उससे पूछताछ की इजाजत दें और जिसके खिलाफ न चाहें, उसके लिए न दें। पिछले कुछ महीनों में वैसे ही सीबीआइ की साख को भारी धक्का लगा है। ऐसे में आमजन के मन में सीबीआइ और पुलिस के काम और राजनीतिक इस्तेमाल को लेकर सवाल उठने लाजिमी हैं। साथ ही, ऐसा टकराव देश के संघीय ढांचे के लिए भी चुनौती है।