कर्नाटक विधानसभा ने बीते शुक्रवार को जो प्रस्ताव पारित किया वह बेहद अफसोसनाक है। सर्वसम्मति से पारित किए गए इस प्रस्ताव में तमिलनाडु को उसके हिस्से का कावेरी का पानी देने में असमर्थता जताई गई है। प्रस्ताव में भले सर्वोच्च अदालत के आदेश का उल्लेख नहीं है, पर यह साफ है कि विधानसभा का प्रस्ताव अदालत के फैसले की खुली अवमानना है। विडंबना यह है कि इस कृत्य में क्षेत्रीय पार्टियां ही नहीं, खुद के राष्ट्रीय होने का दम भरने वाली पार्टियां भी शामिल हैं। यह स्थिति तब है जब कर्नाटक को दिए जाने वाले पानी की मात्रा बाद के अपने आदेश के जरिए सर्वोच्च अदालत ने घटा दी। मगर कर्नाटक को वह भी गवारा नहीं है, तो इससे जाहिर है कि कावेरी के जल बंटवारे का मसला कितना नाजुक है।

पर इसके बावजूद इसे सुलझाना असंभव नहीं है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि कावेरी का पानी दशकों से क्षेत्रीय भावनाएं भड़काने का मुद््दा बना हुआ है, इसलिए न्यायाधिकरण या अदालत के एक मौसमी या अंतरिम फैसले पर भी कावेरी के पानी में आग लग जाती है। कर्नाटक विधानसभा ने अपने प्रस्ताव में राज्य में पानी की कमी का हवाला दिया है। औसत से कम वर्षा के कारण कर्नाटक के इस तर्क को खारिज नहीं किया जा सकता। पर तमिलनाडु के कावेरी बेसिन के इलाकों की हालत तो और भी खराब है। दोनों तरफ के हजारों किसानों की आजीविका कावेरी के पानी पर निर्भर करती है। प्रस्ताव पारित करते समय कर्नाटक विधानसभा ने अपने पड़ोसी राज्य की जरूरत को क्यों ताक पर रख दिया? डर इस बात का है कि इसकी प्रतिक्रिया में कहीं कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच एक बार फिर टकराव का दौर न शुरू हो जाए। अगर जल बंटवारे के विवाद को कावेरी बेसिन वाले राज्य आपसी सहमति से सुलझा लेते तो 2006 में कावेरी अवार्ड की जरूरत ही न पड़ती। लेकिन अवार्ड के भी निर्णय को दोनों राज्यों ने मानने से मना कर दिया और सुप्रीम कोर्ट में अपील की। अब अगर सर्वोच्च अदालत के भी फैसले को नहीं माना जाएगा, तो विवाद के निपटारे का क्या तरीका रह जाता है?

यों इस मामले में कर्नाटक अकेला उदाहरण नहीं है। छह महीने पहले पंजाब सरकार ने सतलुज-यमुना लिंक नहर का निर्माण न होने देने की घोषणा कर सर्वोच्च अदालत के फैसले को ठेंगा दिखाया था। ऐसे मामलों में संबंधित राज्य सरकारों को आखिरकार अदालत की फटकार सुननी पड़ी है और अपने कदम पीछे खींचने पड़े हैं। वर्ष 1991 में ही सर्वोच्च न्यायालय के पांच सदस्यीय पीठ ने साफ कर दिया था कि उसके फैसले को अध्यादेश या विधानसभा के प्रस्ताव के जरिए पलटा नहीं जा सकता। क्या सिद्धरमैया समेत कर्नाटक के सारे राजनीतिक सूरमा सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से अनजान हैं? कर्नाटक के हितैषी दिखने की सियासी होड़ में क्या वे यह सामान्य तकाजा भी नहीं समझते कि जो विवाद दूसरे राज्य से ताल्लुक रखता है उसके बारे में कर्नाटक विधानसभा एकतरफा निर्णय कैसे कर सकती है? पानी की कमी की सारी दुहाई के बावजूद बंगलुरु समेत कर्नाटक के शहरों में होने वाली पानी की बर्बादी के तथ्य दिए जा सकते हैं। चेन्नई से भी। अगर पानी को सहेजने का जतन हो, तो कावेरी विवाद का ऐसा हल निकाला जा सकता है जो टिकाऊ भी हो और बाकी देश के लिए प्रेरक भी।