जीडीपी की वृद्धि दर को विकास के एकमात्र पैमाने के तौर पर देखने का चलन बढ़ता गया है। लेकिन इस धारणा पर सवाल उठते रहे हैं। जब सकल राष्ट्रीय आय या अर्थव्यवस्था के आकार के बजाय आम लोगों के जीवनयापन के स्तर को कसौटी बनाया जाता है, तो तस्वीर भिन्न नजर आती है। इस विरोधाभास को संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास रिपोर्ट हर साल उजागर करती है। यह रिपोर्ट एक चेतावनी भी है कि किसी देश की समग्र प्रगति के लिए केवल जीडीपी वृद्धि के आंकड़े पर्याप्त आधार नहीं हैं, बल्कि सामाजिक मानकों पर भी उसे बेहतर प्रदर्शन करना होगा। इस तकाजे को पूरा न करने या उस पर फिसड््डी रहने का ही नतीजा है कि मानव विकास की वैश्विक तस्वीर में भारत की स्थिति शोचनीय नजर आती है।

गौरतलब है कि यूएनडीपी यानी संयुक्त राष्ट्र मानव विकास कार्यक्रम की तरफ से हर साल रिपोर्ट जारी होती है, जिसमें जीवन-स्तर, स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक बराबरी आदि मानकों पर विभिन्न देशों की प्रगति का आकलन होता है। ताजा रिपोर्ट के मुताबिक मानव विकास के मामले में भारत पिछले साल के मुकाबले एक पायदान ऊपर चढ़ा है, पर अब भी उसकी स्थिति वैश्विक औसत से नीचे है। मानव विकास सूचकांक में एक सौ अट्ठासी देशों में एक सौ तीसवें नबंर पर उसे जगह मिली है। इस बार के आकलन में विशेष पहलू स्त्री-पुरुष विषमता का है, और भारत की स्थिति इस पैमाने पर पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे पड़ोसियों से भी खराब है।

दक्षिण एशिया में केवल अफगानिस्तान की स्थिति इस मामले में भारत से बुरी है। दरअसल, स्त्री-पुरुष विषमता ने ही सूचकांक में भारत को कई स्थान नीचे कर दिया। वर्ष 2009 से भारत मानव विकास सूचकांक में छह पायदान ऊपर आया है। इस मामूली सुधार की वजह प्रतिव्यक्ति आय में हुई बढ़ोतरी है। लेकिन प्रतिव्यक्ति आय का आंकड़ा वास्तविक तस्वीर पेश नहीं करता, क्योंकि इसमें अरबपतियों से लेकर कंगालों तक, सबकी आय का औसत निकाला जाता है। इसलिए यह हैरत की बात नहीं कि प्रतिव्यक्ति आय में भले बढ़ोतरी दर्ज हुई हो, स्वास्थ्य और शिक्षा के मानकों पर भारत सुधार दर्ज नहीं कर पाया।

यह केवल दो-चार साल का नहीं, पिछले तीस साल का अध्ययन बताता है कि अगर स्वास्थ्य और शिक्षा के मामले में भारत ने संतोषजनक प्रदर्शन किया होता, तो वह मानव विकास की कतार में इतना पीछे खड़ा न दिखता। सेहत के मोर्चे पर क्या हालत है, इसका अंदाजा चालीस फीसद से ज्यादा बच्चों के कुपोषणग्रस्त होने के तथ्य से लगाया जा सकता है। भारत में समय-समय पर गरीबी के मापदंड को लेकर काफी बहस चली है। फिर भी, यहां गरीबी रेखा का निर्धारण इस तरह नहीं हो सका जो अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप हो। यूएनडीपी ने गरीबी को मापने का जो बहुआयामी सूचकांक तय किया है उसके मुताबिक भारत में पचपन फीसद आबादी गरीबी रेखा से नीचे है।

जाहिर है, यह रिपोर्ट एक बार फिर महज जीडीपी की वृद्धि दर और अर्थव्यवस्था के आकार के आधार पर किए जाने दावों पर जहां गंभीर सवालिया निशान लगाती है, वहीं भारत में गरीबी रेखा के निर्धारण पर भी। हर साल मानव विकास रिपोर्ट आती है और जल्दी ही भुला दी जाती है। जबकि उसके निष्कर्षों पर गंभीर बहस होनी चाहिए। चर्चा से बचने के पीछे शायद यही वजह होगी कि अगर मानव विकास के मानकों पर प्रगति को आंकने पर जोर दिया जाने लगेगा, तो प्रचलित नीतियों और प्राथमिकताओं को बदलने की मांग उठ सकती है!