जनप्रतिनिधियों के वेतन-भत्तों पर सरकारी खर्चों को लेकर लंबे समय से सवाल उठाया जाता रहा है। खासकर वेतन के अलावा उन्हें मिलने वाले कई भत्ते ऐसे हैं, जिन्हें उपयोग, जरूरत और खर्च में मौजूद विसंगतियों की वजह से फिजूलखर्च भी माना जा सकता है। लेकिन विकास कार्यों के दूसरे क्षेत्रों में पैसे के अभाव का रोना रोने वाली सरकारों ने शायद ही कभी विधायकों पर किए जाने वाले खर्च में कोई उल्लेखनीय कटौती या उसे संतुलित करने की कोशिश की हो। मध्यप्रदेश में आरटीआइ यानी सूचना के अधिकार कानून के तहत हासिल एक जानकारी के तहत विधायकों के वेतन-भत्तों के बारे में जिस तरह के ब्योरे सामने आए हैं, वे यह बताने के लिए काफी हैं कि इन नेताओं पर खर्च करने के मामले में सरकार ने किस तरह उदारता दिखाई। विडंबना है कि इसी तरह की उदारता राज्य के विकास के अनिवार्य पहलुओं को लेकर नहीं दिखाई देती।

आरटीआइ के तहत मिली जानकारी के आंकड़ों के मुताबिक मध्यप्रदेश सरकार ने पिछले साढ़े पांच साल में विधायकों के वेतन-भत्तों पर कुल एक सौ उनचास करोड़ रुपए खर्च किए। इसमें एक अहम पहलू यह है कि विधायकों के वेतन के मुकाबले उनके भत्तों पर साढ़े तीन गुना से ज्यादा रकम का भुगतान किया गया। दो सौ इकतीस विधानसभा सदस्यों के वेतन पर जहां 32.03 करोड़ रुपए खर्च हुए, वहीं उनके भत्तों पर सरकारी खजाने से करीब एक सौ सत्रह करोड़ रुपए का भुगतान किया गया। इसमें अकेले यात्रा भत्ते के मद में चौंतीस करोड़ रुपए से ज्यादा की अदायगी शामिल है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि राज्य में एक ओर दो वक्त पेट भरने के लिए रोजाना जूझती एक बड़ी आबादी में जनता है, तो उसके बरक्स उनके प्रतिनिधि कहे जाने वाले लोग हैं, जिनकी सुविधाओं से लेकर देश-दुनिया में घूमने पर सरकारी खजाने से भारी रकम का भुगतान किया जा रहा है। यह किसी से छिपा नहीं है कि जब भी सांसदों-विधायकों के वेतन-भत्तों में बढ़ोतरी की घोषणा की जाती है, तो ज्यादातर मसलों पर एक-दूसरे के कट्टर विरोधी रहे लगभग सभी राजनीतिक दलों के बीच इस मसले पर दिलचस्प एकता दिखाई देती है। जबकि इस तरह की सक्रियता विकास से संबंधित दूसरे क्षेत्रों में धन की उपलब्धता के सवाल पर शायद ही कभी देखी जाती है।

यह बेवजह नहीं है कि राज्य या देश में शिक्षा, स्वास्थ्य या रोजगार के क्षेत्र में विकास के काम धन के अभाव की दलील पर रुके रहते हैं या उनके प्रति सरकारें टालमटोल का रवैया अख्तियार करती हैं। जहां तक मध्यप्रदेश का सवाल है, कुछ समय पहले सरकार ने वहां उन्नीस हजार से ज्यादा स्कूलों को बंद करने का फैसला किया। इसके पीछे कुछ अन्य तर्कों के अलावा एक मुख्य कारण यह बताया गया कि इससे स्कूलों के रखरखाव पर आने वाले खर्च को कम किया जा सकेगा। इसी तरह, राज्य में सरकारी अस्पतालों की बदहाली के पीछे भी धन की कमी को एक बड़ा कारण बताया जाता रहा है। विशेषज्ञ डॉक्टरों के स्वीकृत कुल पदों में दो-तिहाई खाली हैं। जो डॉक्टर हैं भी, वे अपने मौजूदा वेतन भुगतान की विसंगतियों की शिकायतें कर रहे हैं। सवाल है कि अगर विधायकों के वेतन-भत्तों का भुगतान सरकारी खजाने से करने में सरकार को कोई संकोच नहीं होता, तो शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों के मामले में पैसे के अभाव का तर्क कैसे खड़ा हो जाता है!