हाल में हुए पांच राज्यों के चुनावों में कांग्रेस को मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सरकार बनाने लायक कामयाबी मिली। पर उसके बाद छत्तीसगढ़ को छोड़ कर बाकी दो राज्यों में मुख्यमंत्री पद को लेकर जैसी खींचतान सामने आई, उससे यही लगता है कि पार्टी ने चुनावों से पहले इस सवाल को हल करना जरूरी नहीं समझा था। छत्तीसगढ़ में मामूली प्रतिस्पर्धा के बीच पार्टी प्रभारी भूपेश बघेल के नाम पर सहमति बनी है। मगर मध्यप्रदेश और राजस्थान में पार्टी के सामने यह सवाल एक चुनौती के रूप में सामने आई कि एक तरह से दो धड़ों में बंटी पार्टी में नेतृत्व किस खेमे को सौंपा जाए। मसलन, मध्यप्रदेश में प्रतिद्वंद्विता जहां कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच देखी गई, वहीं राजस्थान में यह द्वंद्व अशोक गहलोत और सचिन पायलट के रूप में सामने थी। दरअसल, इस बार के विधानसभा चुनावों को कांग्रेस ने जिस तरह अस्तित्व का सवाल बना कर मेहनत की, उसका उसे फायदा मिला और नतीजे उसके पक्ष में आए। लेकिन इस क्रम में दोनों राज्यों में जो दो खेमे उभरे, उन्होंने अपने स्तर से पार्टी को जीत दिलाने में कोई कमी नहीं की।

यही वजह है कि राज्य में मुख्यमंत्री बनने या नेतृत्व का सवाल जब खड़ा हुआ, तो स्वाभाविक रूप से दावेदारी दोनों ही खेमों से उभरी। बल्कि उनके बीच अपने नेता को मुख्यमंत्री बनाने की मांग को लेकर पार्टी नेतृत्व के सामने जिस तरह प्रदर्शन और नारेबाजी देखी गई, उससे साफ है कि नेतृत्व के सवाल को चुनाव के नतीजों के बाद के लिए छोड़ दिया गया था। टकराव की स्थिति पैदा होने के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भले यह कहा कि राज्यों में मुख्यमंत्री का नाम पार्टी के विधायकों, नेताओं और कार्यकर्ताओं से राय-विमर्श के बाद होगा, लेकिन अगर नेतृत्व के चुनाव की यही प्रक्रिया हो तो लोकतंत्र के लिए यह एक आदर्श स्थिति होती। पर सच यह है कि आमतौर पर पार्टी आलाकमान के फैसले को बाकी विधायक मान लेते हैं। मध्यप्रदेश और राजस्थान में मुख्यमंत्री पद के लिए भी ऐसी ही स्थिति सामने आ रही है। राज्य की राजनीति और जनता पर असर और अनुभव के तर्क पर जहां मध्यप्रदेश में कमलनाथ को मुख्यमंत्री और पार्टी में उत्साह का संचार करने के लिए ज्योतिरादित्य सिंधिया को उप-मुख्यमंत्री पद पर काम करने के फार्मूले पर सहमति बनाने की कोशिश की गई, वहीं राजस्थान में यही कसौटी अशोक गहलोत और सचिन पायलट के लिए है।

लोकतंत्र का तकाजा है कि लोकसभा या विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद जिस पार्टी या गठबंधन के सबसे ज्यादा सांसद या विधायक चुने जाएं, वे सब मिल कर केंद्र या राज्य सरकार का नेतृत्व करने वाले व्यक्ति का चुनाव करें। लेकिन पिछले कुछ दशकों के दौरान चुनावों के बाद नेतृत्व के सवाल पर पार्टियों के भीतर जिस तरह की खींचतान देखी गई है, उसमें लोकतंत्र की इस मूल भावना के लिए जगह लगातार कम हुई है। आमतौर पर किसी राज्य के मुख्यमंत्री पद के लिए जीत हासिल करने वाली किसी भी पार्टी की ओर से एक नाम तय कर दिया जाता है और बाकी विधायकों को उस पर मुहर लगाने भर की औपचारिकता निभानी होती है। अगर कभी एक से ज्यादा नाम नेतृत्व के दावेदार होते हैं तो उनके पक्ष-विपक्ष में होने वाली खींचतान से कई बार अप्रिय स्थितियां पैदा हो जाती हैं। इससे पार्टियों के भीतर लोकतंत्र का दावा कमजोर होता है।