यह एक जगजाहिर तथ्य है कि बीते कई सालों से बढ़ती ठंड के साथ राजधानी दिल्ली में प्रदूषण की समस्या गहरा जाती है। लेकिन जब हालात खतरे के निशान से पार जाने लगते हैं तब जाकर सरकारों की नींद खुलती है। उसके बाद इस समस्या से निपटने के लिए आनन-फानन में जो कदम उठाए जाते हैं, वे आमतौर पर अपर्याप्त ही साबित होते हैं। करीब एक पखवाड़े से दिल्ली की हवा इस स्थिति में बनी हुई है कि यहां पहले से बीमार लोगों की हालत बिगड़ रही है और सामान्य सेहत वालों को भी सांस की तकलीफों से गुजरना पड़ रहा है। समस्या के गंभीर शक्ल अख्तियार कर लेने के बाद इससे निपटने के ठोस उपाय करने के बजाय पड़ोसी राज्यों और दूसरे कारकों को जिम्मेदार बताया जाने लगता है। लेकिन यह तथ्य है कि हवा में घुले जहरीले तत्त्वों की वजह से दिल्ली के गैस चेंबर बनते जाने में सबसे बड़ा योगदान यहां की सड़कों पर दौड़ रहे वाहन हैं। दिल्ली में निजी वाहनों से खड़ी इस समस्या के मद्देनजर पेट्रोल से चलने वाले दस साल और डीजलचालित पंद्रह साल पुराने वाहनों पर पूरी तरह पाबंदी का नियम भी लागू हुआ। इसके अलावा, दिल्ली के सीमा-क्षेत्र में ढुलाई वाले ट्रकों या भारी वाहनों के प्रवेश को भी सीमित किया गया।
इसके तहत रविवार को छह सौ से ज्यादा वाहनों को दिल्ली में प्रवेश की इजाजत नहीं दी गई। प्रदूषण की समस्या का सामना करने के लिहाज से दिल्ली में पेट्रोल और डीजल से चलने वाले निजी वाहनों की मौजूदा संख्या और तेजी से बढ़ती तादाद के मद्देनजर बेशक यह जरूरी कदम है। लेकिन सच यह है कि सीपीसीबी यानी केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मानकों में समूचे एनसीआर यानी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की हवा आज भी ‘बेहद गंभीर’ की स्थिति में कायम है। दरअसल, समस्या के खतरनाक शक्ल अख्तियार कर लेने के बाद फौरी तौर पर उठाए कदमों की अपनी सीमा होती है। पहले से ही गंभीर संकट से जूझ रहे शहर में ठंड के मौसम में हवा का दबाव और इसकी गति खतरनाक प्रदूषक तत्त्वों को हवा में घुलने के अनुकूल स्थितियां तैयार करती है। नतीजतन, हालात पर काबू पाने या सुधार के लिए की गई कुछ फौरी कवायदों का कोई खास असर नहीं पड़ता है। इसके लिए दिल्ली की सड़कों पर वाहनों का बोझ कम करना एक अहम उपाय हो सकता है। लेकिन सवाल है कि क्या यह समस्या चंद रोज की व्यवस्था से दूर हो सकती है?
दिल्ली में भारी वाहनों के प्रवेश को सीमित करने के अलावा निजी कारों की संख्या कम करने के लिए ऑड-इवन जैसी व्यवस्था लागू की गई थी। लेकिन चूंकि वह एक तात्कालिक उपाय था, इसलिए उसका कोई ठोस नतीजा सामने नहीं आया। अगर सरकार लोगों को निजी वाहनों का उपयोग कम करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहती है, तो यह कितना कामयाब होगा? दिल्ली में सार्वजनिक परिवहन की व्यवस्था इस कदर कमजोर है कि कोई भी व्यक्ति डीटीसी बसों के सहारे अपने कामकाज की जगहों पर निश्चित समय पर पहुंचने की उम्मीद नहीं कर सकता। मेट्रो ट्रेन के किराए में बेलगाम बढ़ोतरी के बाद लाखों लोगों ने उसके सहारे आवाजाही छोड़ दी। बहुतों ने ज्यादा किराए की वजह से निजी वाहनों के इस्तेमाल को ही ज्यादा ठीक समझा। सवाल है कि आवाजाही से लेकर बाकी दूसरे सभी जरूरी कामों के लिए सार्वजनिक परिवहन की व्यवस्था को पूरी तरह सहज, सुलभ और सस्ता बनाए बिना निजी वाहनों के उपयोग को कैसे और कितने दिनों तक सीमित किया जा सकेगा!