तमाम कोशिशों के बावजूद महंगाई पर काबू पाना सरकार के लिए कठिन बना हुआ है। पिछले महीने खाद्य वस्तुओं की खुदरा महंगाई 9.53 फीसद पर पहुंच गई। इसके पिछले महीने यह 8.70 फीसद पर थी, जबकि पिछले वर्ष की समान अवधि में यह 4.90 फीसद दर्ज की गई थी। यह महंगाई दर दालों, सब्जियों और मसालों की कीमतों में अत्यधिक वृद्धि की वजह से दर्ज हुई है। हालांकि अनाज और खाद्य तेलों में मुद्रास्फीति कुछ कम हुई है।

रिजर्व बैंक की कोशिश महंगाई को पांच फीसद से नीचे रखने की है

भारतीय रिजर्व बैंक इस स्थिति के लिए पहले से तैयार था। इसीलिए उसने बैंक दरों में कोई बदलाव करने से परहेज किया। उसका मानना है कि सब्जियों और दालों की कीमतों में इस तरह के उतार-चढ़ाव आते रहेंगे और इसके लिए पहले से तैयार रहने की जरूरत है। रिजर्व बैंक की कोशिश रही है कि महंगाई को पांच फीसद से नीचे स्थिर रखा जाए। इससे आर्थिक विकास को गति मिलेगी। मगर इस मामले में उसे कामयाबी नहीं मिल पा रही है। हालांकि इसके उलट, भारतीय अर्थव्यवस्था के दुनिया में सबसे बेहतर यानी सात फीसद से ऊपर रहने का अनुमान लगाया जा रहा है।

आर्थिक आंकड़ों के गणित में कुछ बातें लोगों की समझ से परे

आर्थिक आंकड़ों के गणित में कुछ बातें बहुत सारे लोगों की समझ से परे या फिर विरोधाभासी लगती हैं। महंगाई के साथ औद्योगिक उत्पादन के आंकड़े भी आए हैं, जिसमें तेईस में से सत्रह क्षेत्रों का प्रदर्शन निराशाजनक देखा गया है। औद्योगिक उत्पादन अपने पिछले आठ महीने के सबसे निचले स्तर पर यानी 2.4 फीसद दर्ज हुआ है। इसके पीछे उच्च आधार प्रभाव के साथ-साथ उपभोक्ता वस्तुओं और विनिर्माण गतिविधियों में शिथिलता को कारण माना जा रहा है। इसके बावजूद आर्थिक विकास दर में तेजी बताई जा रही है।

जब औद्योगिक उत्पादन निराशाजनक हो, उपभोक्ता वस्तुओं की खपत कम हो रही हो, व्यापार घाटा और राजकोषीय घाटा पाटना चुनौती बना हुआ हो, तब भी विकास दर ऊंची बनी रहे, तो इस पर हैरानी स्वाभाविक है। संतुलित विकास के लिए महंगाई दर का नीचे रहना, औद्योगिक उत्पादन का संतोषजनक दर से वृद्धि करना, रोजगार के नए अवसर सृजित होते रहना और बाजार में पूंजी का प्रवाह संतुलित रहना बहुत जरूरी होता है। महंगाई, खासकर खाने-पीने और रोजमर्रा इस्तेमाल की वस्तुओं की खुदरा कीमतों में बढ़ोतरी, आर्थिक विकास पर नकारात्मक असर डालती है।

कोरोनाकाल के बाद कारोबारी गतिविधियां सामान्य ढंग से चल तो पड़ीं, मगर रोजगार और आय के स्तर पर बहुत सुधार नहीं देखा गया। लोगों की कमाई बढ़ नहीं पा रही है। जिन लोगों के रोजगार छिन गए, उनमें से बहुत सारे आज भी खाली हाथ बैठे हैं। इस तरह सबसे अधिक बुरा प्रभाव लोगों की क्रय शक्ति पर पड़ा है। इसकी वजह से कुछ त्योहारी मौसमों को छोड़ दें, तो उपभोक्ता वस्तुओं के बाजार में रौनक अभी तक स्वाभाविक ढंग से नहीं लौटी है।

मगर खाने-पीने की वस्तुओं की कीमतों में बढ़ोतरी कृषि उत्पादों के भंडारण, बाजारों तक उनकी सुगम पहुंच और विक्रय नीतियों में असंतुलन की वजह से अधिक देखी जाती है। यह मौसम आमतौर पर सब्जियों और फलों के उत्पादन के लिहाज से अच्छा माना जाता है। मौसम भी आमतौर पर अनुकूल ही रहा है। फिर भी सब्जियों की कीमतों में सत्ताईस फीसद से अधिक बढ़ोतरी देखी गई, तो खेतों से उपभोक्ता तक उनके पहुंचने में आने वाली दिक्कतों को दूर करने पर विचार की जरूरत है। महंगाई की मार से बचाने के लिए लोगों की क्रयशक्ति बढ़ाने के उपाय जुटाना इस वक्त की बड़ी चुनौती है।