संवाद और संचार के संसाधनों के रूप में सोशल मीडिया मंचों के विस्तार के साथ-साथ एक समस्या यह उभरी है कि उस पर अभिव्यक्तियों को किस रूप में देखा जाए। कई बार यूट्यूब, फेसबुक, एक्स जैसे सोशल मीडिया मंचों पर किसी मसले को लेकर जाहिर की गई राय को आपत्तिजनक सामग्री के तौर पर देखा और उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की गई। मगर फिर सवाल उठा कि अगर स्वतंत्र मंचों पर जाहिर किए गए विचारों को इस तरह बाधित किया जाएगा तो अभिव्यक्ति के अधिकार का क्या मतलब रह जाएगा।
फिर ऐसे आरोपों में लोगों को गिरफ्तार करने की प्रक्रिया एक चलन बनी, तो यह कहां जाकर थमेगा? सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को तमिलनाडु के एक मामले में साफ कहा कि अगर चुनाव से पहले हम यूट्यूब पर आरोप लगाने वाले हर व्यक्ति को सलाखों के पीछे डालना शुरू कर देंगे, तो कल्पना कीजिए कि कितने लोगों को जेल होगी।
अदालत की यह टिप्पणी ऐसे समय में आई है, जब पिछले कुछ समय से आशंका जाहिर की जा रही है कि सरकारें सोशल मीडिया पर चलने वाली कुछ अवांछित गतिविधियों और झूठी खबरों की आड़ में आलोचना के सभी स्वरों को बाधित करने की कोशिश कर रही हैं। इससे अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगेगा और लोकतंत्र कमजोर होगा।
मगर अब शीर्ष अदालत ने मद्रास हाईकोर्ट के आदेश को रद्द करते हुए यूट्यूब चैनल चलाने वाले एक युवक को जमानत दे दी है। उस पर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करने का आरोप था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आरोपी ने विचार की अभिव्यक्ति की आजादी का इस्तेमाल किया और उसने अधिकारों का उल्लंघन नहीं किया है।
सच है कि आज सोशल मीडिया पर कई बार कुछ अपरिपक्व लोग अमर्यादित और आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग करते हैं, जिससे किसी की गरिमा का हनन हो सकता है। मगर एक लोकतांत्रिक समाज और शासन में खासकर सरकारों को अधिकतम सीमा तक सहनशील होने की जरूरत है। आलोचना से सरकार को भी अपना रुख सुधारने का मौका मिलता है। जबकि अभिव्यक्ति में अवरोध लोकतंत्र को कमजोर करता है।