तंबाकू और पान-मसाला की बिक्री को लेकर एक याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जो टिप्पणी की, उसे इस मसले पर सरकारों की इच्छाशक्ति को आईना दिखाना माना जा सकता है। इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि जहां तंबाकू के सेवन से गंभीर रोग होने की जानकारी देने और इस खतरनाक पदार्थ का सेवन छोड़ने का संदेश देने वाले विज्ञापनों के जरिए आम लोगों को सचेत और जागरूक किया जाता है, वहीं रोजमर्रा की जिंदगी में स्वास्थ्य के लिए घातक साबित होने वाली चीजों की सरेआम बिक्री चलती रहती है।
इसी मुद्दे पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने साफ लहजे में कहा कि गुटखा बेचना कोई अमृत बेचना नहीं है; इस पर स्थायी तौर पर पाबंदी क्यों नहीं लगाई जाती? जाहिर है, अदालत ने एक तरह से यह बुनियादी सवाल उठाया है कि अगर सरकार यह मानती है कि गुटखा या तंबाकू उत्पादों से लोगों की सेहत को गंभीर नुकसान पहुंचता है तो इसके उत्पादन और बिक्री को लेकर कोई ठोस नियमन क्यों नहीं है।
यह विरोधाभास ही है कि एक ओर देश भर में लोगों की सेहत को सुरक्षित बनाने के लिए सरकार की ओर से सख्त नियम-कायदे लागू किए जाते हैं और उन पर अमल सुनिश्चित कराया जाता है, दूसरी ओर रोजमर्रा की जिंदगी में स्वास्थ्य के लिए खतरा साबित होने वाली चीजों की बिक्री को लेकर लापरवाही का आलम कायम रहता है।
गौरतलब है कि तमिलनाडु में मद्रास उच्च न्यायालय ने राज्य के खाद्य सुरक्षा आयुक्त की 2018 की उस अधिसूचना को रद्द कर दिया था, जिसके जरिए गुटखा और अन्य तंबाकू आधारित उत्पादों की बिक्री, निर्माण और माल ढुलाई पर रोक लगाई गई थी। हाई कोर्ट के उसी आदेश के खिलाफ तमिलनाडु सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की थी।
सही है कि तमिलनाडु सरकार आम लोगों के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाने वाले इन पदार्थों की बिक्री पर रोक लगाने की कोशिश की, लेकिन ऐसे नियम क्यों होते हैं कि हर अगले साल नए सिरे से उनके लिए अधिसूचना जारी करनी पड़ती है? इस सवाल उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने सही ही पूछा कि हर साल ऐसी अधिसूचना जारी करने के बजाय स्थायी रूप से इस पर पाबंदी क्यों नहीं लगाई जाती! लेकिन तमिलनाडु सरकार की ओर से इसका विचित्र जवाब यह दिया गया कि निर्माता कंपनियां पान-मसाला और तंबाकू अलग-अलग पाउच में बेचती हैं, इसलिए इस पर स्थायी पाबंदी नहीं लगाया जा सकता है।
यह समझना मुश्किल है कि इस तरह की दलीलों के जरिए तंबाकू को लेकर नीतिगत फैसलों के किस पहलू को सही ठहराने की कोशिश की जाती है। अगर सरकार तंबाकू आधारित उत्पादों को स्वास्थ्य के लिहाज से खतरनाक मानती है तो उनकी बिक्री और उससे आगे उत्पादन को लेकर कोई ठोस नियमन क्यों नहीं हो सकता? यह छिपा नहीं है कि गुटखा या तंबाकू आधारित उत्पादों की वजह से कैंसर या अन्य कई गंभीर रोग आज जनस्वास्थ्य के लिए एक बड़ी समस्या और चुनौती के रूप में सामने है।
इसे स्वास्थ्य विशेषज्ञों से लेकर सरकारें तक स्वीकार करती हैं। इससे दूर रहने के लिए विज्ञापनों के जरिए जागरूकता अभियान चलाया जाता है। लेकिन नशे और लत का शिकार बना कर लोगों को बीमार करने और कई बार जानलेवा रोग से ग्रस्त कर देने वाली शराब, गुटका या तंबाकू आधारित उत्पादों की बिक्री को लेकर सरकारें सिर्फ इसलिए नरम रहती हैं कि इनकी बिक्री से उन्हें भारी पैमाने पर राजस्व हासिल होता है। सवाल है कि केवल सरकारी राजस्व में बढ़ोतरी के लिए व्यापक पैमाने पर आम लोगों की सेहत के साथ खिलवाड़ किया जाना कितना उचित है!