राज्यपालों की भूमिका को लेकर अब अक्सर सवाल उठने लगे हैं। इसकी एक बड़ी वजह है राज्यपालों का केंद्र सरकार की तरफ झुकाव और राजनीतिक सक्रियता। विचित्र है कि इसे लेकर सर्वोच्च न्यायालय को नसीहत देनी पड़ी है कि राज्यपालों को समझना होगा कि वे जनता द्वारा सीधे चुने हुए प्रतिनिधि नहीं हैं।
दरअसल, पिछले हफ्ते केरल, पंजाब और तमिलनाडु की राज्य सरकारों ने सर्वोच्च न्यायालय में गुहार लगाई थी कि राज्यपाल उनके पारित विधेयकों को लटकाए हुए हैं। यहां तक कि धन-विधेयक पर भी मंजूरी नहीं दे रहे। पंजाब सरकार की तरफ से दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने यह सख्त टिप्पणी की।
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि राज्यपालों को यह प्रवृत्ति छोड़नी होगी कि मामला अदालत में आने के बाद ही वे विधेयकों पर मंजूरी देंगे। अदालत की यह टिप्पणी एक तरह से राज्यपाल पद की गरिमा को प्रश्नांकित करने वाली है। यह शायद पहली बार है, जब राज्य सरकारों को विधानसभा में पारित विधेयकों पर मंजूरी प्राप्त करने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ा। जबकि राज्यपाल इस नियम से अनजान नहीं माने जा सकते कि पारित विधेयकों पर मंजूरी को लटकाए रखने का उनका अधिकार सीमित है।
हालांकि पहले भी राज्यपाल केंद्र की मर्जी के अनुरूप और दलगत झुकाव के साथ काम करते देखे जाते थे, मगर पिछले आठ-नौ सालों में जिस तरह वे प्रकट रूप में अपने पद की गरिमा को ताक पर रखते हुए काम करते देखे जा रहे हैं, उसे लेकर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। राज्यपाल का पद संवैधानिक और एक तरह से शोभा का होता है।
उसका दायित्व राज्य सरकार की सहमति और सहयोग से लोकतांत्रिक और गणतांत्रिक मूल्यों की पहरेदारी करना है। मगर उनकी नियुक्ति चूंकि केंद्र सरकार करती है, इसलिए जाहिर है कि दोनों के बीच अघोषित राजनीतिक स्वार्थ का सूत्र जुड़ा होता है। प्राय: जिन राज्यों में केंद्र के विपक्षी दलों की सरकारें होती हैं, उनमें राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच तनावपूर्ण रिश्ते देखे जाते हैं।
इससे पहले भी केंद्र के इशारे पर कई बार राज्यपाल राज्य की सरकारों को अपदस्थ कर चुके हैं। मगर बीते कुछ सालों में राज्यपाल जानबूझ कर सरकारों के कामकाज में बाधा डालने का प्रयास करते देखे जा रहे हैं। दिल्ली इसका ज्वलंत उदाहरण है, जहां उपराज्यपाल ने एक तरह से चुनी हुई सरकार के सारे अधिकार अपने हाथों में ले लिए हैं और सरकार का हर फैसला पलटते रहते हैं।
कुछ समय पहले तक पश्चिम बंगाल में राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच तो जुबानी जंग भी देखी जाती थी। राज्यपाल खुल कर दलगत बयान दिया करते थे। उनके वहां से हटने के बाद ही राज्य सरकार कुछ राहत की सांस ले सकी है। मगर पंजाब में भी वही रवैया दिखाई देता है। राज्यपाल और मान सरकार के बीच अक्सर ठनी रहती है।
यहां तक कि राज्यपाल ने विधानसभा का विशेष सत्र बुलाने की इजाजत नहीं दी, जिसके लिए सरकार को अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ा था। ऐसे टकराव तकरीबन हर राज्य में दिखाई देते हैं, जहां केंद्र के विपक्षी दलों की सरकारें हैं। इस तरह राज्यपालों ने अपने पद की गरिमा को ही गिराया है।
उनके और राज्य सरकार के बीच की सियासी तकरार के चलते आखिरकार वहां की जनता को खमियाजा भुगतना पड़ता है। अनेक विकास कार्य ठप पड़ जाते हैं। जो काम संवैधानिक मर्यादा में होने चाहिए, उनके लिए सर्वोच्च न्यायालय को फटकार लगानी पड़े, तो यह लोकतंत्र के लिए अफसोस का विषय है।