किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में अभिव्यक्ति की आजादी एक जीवन-तत्त्व के रूप में काम करती है। यह एक प्रगतिशील सोच वाले समाज की परिपक्वता की भी पहचान है कि वह किसी के विचार पर गौर करे और चाहे तो अनदेखी करे। उससे आगे अगर सहमति-असहमति का प्रश्न आता है, तो उसके लिए लोकतांत्रिक मूल्यों का निर्वाह करे।
विडंबना यह है कि कई बार अभिव्यक्ति को सवालों के घेरे में आते देखा जाता है, तो कभी उसे सीमित करने की भी कोशिश की जाती है। ये दोनों स्थितियां लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप नहीं हैं। ऐसे में यह सुनिश्चित करना एक बड़ी चुनौती है कि एक ओर अधिकार के रूप में अभिव्यक्ति को बाधित नहीं किया जाए, तो दूसरी ओर इसकी गरिमा को बनाए रखने की कोशिश की जाए।
गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने सोशल मीडिया के एक मंच पर कथित आपत्तिजनक व्यंग्य-चित्र लगाने के संदर्भ में कार्टून बनाने वाले को दंडात्मक कार्रवाई से संरक्षण प्रदान किया। हालांकि अदालत ने सोशल मीडिया पर बढ़ती आपत्तिजनक सामग्री पर चिंता जाहिर की और इस पर अंकुश लगाने के लिए न्यायिक आदेश पारित करने की जरूरत पर भी जोर दिया।
पिछले कुछ समय से सोशल मीडिया पर जिस तरह कुछ लिखते या चित्र प्रसारित करते हुए लापरवाही बरतने की होड़-सी देखी जा रही है, उसमें सुप्रीम कोर्ट की चिंता वाजिब हो सकती है। मसलन, कुछ महीने पहले एक यूट्यूब चैनल पर कार्यक्रम के दौरान आपत्तिजनक भाषा, महिला विरोधी टिप्पणियां और दिव्यांगों का उपहास करने वाली सामग्री का प्रसारण किया गया था।
स्वाभाविक ही इसे अभिव्यक्ति के अधिकार के दुरुपयोग के रूप में देखा गया। इस तरह की सामग्रियों को हतोत्साहित करने के लिए ऐसे नियमन पर विचार किया जा सकता है, जो परिपक्व तरीके से होने वाले संवाद को बढ़ावा दे। मगर सवाल है कि यह परिभाषित कौन और किस आधार पर करेगा कि कोई अभिव्यक्ति आपत्तिजनक है या नहीं! फिर अभिव्यक्ति और उसके स्वरूप को परिभाषित या सीमित करने के नियम का दुरुपयोग हुआ तो वैसी स्थिति में क्या किया जाएगा?
यह भी ध्यान रखना होगा कि सत्य और तथ्य को उजागर करने को सरकारें अपनी सुविधा के मुताबिक देखना शुरू न करें, क्योंकि इससे सबसे ज्यादा नुकसान अभिव्यक्ति के अधिकार और लोकतांत्रिक मूल्यों को होगा।