मतपत्रों के इस्तेमाल की मांग को जिन तर्कों के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने खारिज किया है, वे गौर करने लायक हैं। ईवीएम को खारिज कर पुरानी प्रणाली की ओर लौटने की मांग उठी है और महाराष्ट्र चुनाव में कुछ घटनाओं का जिक्र कर सवाल उठाए गए हैं, लेकिन झारखंड के नतीजों का तर्क सामने आते ही वे बेमानी हो गए। दरअसल, अब तक ऐसा अकाट्य प्रमाण सामने नहीं लाया जा सका है, जिससे कहा जा सके कि वर्तमान प्रणाली किसी अपूरणीय कमी से ग्रस्त है और बड़े बदलाव की जरूरत है। इससे पहले भी शीर्ष अदालत ने ईवीएम (इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन) के माध्यम से डाले गए मतों के सौ फीसद सत्यापन की मांग को ठुकरा दिया था। अदालत ने तब ही स्पष्ट कर दिया था कि मतपत्रों की ओर लौटना वास्तव में प्रतिगामी होगा और चुनाव प्रक्रिया में मतपत्रों से जुड़ी जो गड़बड़ियां खत्म की जा चुकी हैं, वे दोबारा सामने आ जाएंगी।
भारतीय लोकतंत्र इस बात का साक्षी रहा है कि हमेशा लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग सूझबूूझ और विवेक के साथ किया है। उदाहरण के लिए, कई राज्यों में बार-बार देखा गया है कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए लोग अलग-अलग राजनीतिक दलों के लिए मतदान करते हैं, भले ही चुनाव एक साथ ही क्यों न हों। ऐसे में सवाल क्यों उठ रहे हैं। यहीं सरकारी संस्थानों की शुचिता की बात आ जाती है। अक्सर चुनाव आयोग पर सवाल उठे। विपक्ष की शिकायतों पर सुनवाई करने के नाम पर साफ दिखा कि प्रक्रिया का पालन तो किया गया, लेकिन मुद्दों को लेकर गंभीरता कम रही।
विपक्ष को मौका मिला आयोग पर सवाल उठाने का, जिससे शक बढ़ा। मतदान के आंकड़ों में बार-बार बदलाव, मतदान के दिन कई शिकायतों को ठंडे बस्ते में डाल दिए जाने की खबरों से संदेह तो बढ़ा ही। इस बार महाराष्ट्र में ईवीएम के 90 फीसद चार्ज रहने का मुद्दा विपक्ष ने उठाया। यह मुद्दा राजनीतिक बयानबाजी तक सीमित रह गया। दरअसल, चुनाव आयोग हर बार तकनीकी पक्ष को लेकर बयान दे देता है। आयोग का कहना है कि ईवीएम को विश्वसनीय बनाने के लिए अनेक उपाय किए गए हैं।
दावों-प्रतिदावों को छोड़ उचित यह होगा कि विपक्ष ईवीएम में हेरफेर के बारे में अपनी पुरानी बयानबाजी छोड़ दे और उन संभावित राजनीतिक कारणों पर विचार करे जो उसकी चुनावी हार का कारण बन रहे हैं। चुनाव सुधारों पर बात होनी चाहिए, जो सतत प्रक्रिया है। इसमें सभी राजनीतिक दलों की भागीदारी होनी चाहिए। किसी भी राजनीतिक दल या गठबंधन को अपने मुद्दे तय करने, उनको लेकर जनता में जाने की जरूरत होती है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जनता के बीच जाना मुख्य शर्त है।
दूसरे, सुप्रीम कोर्ट या निर्वाचन आयोग मतपत्रों से चुनाव की बात मौजूदा वक्त में स्वीकार नहीं करेगा, यह जाहिर है। हालांकि दुनिया के कई देशों ने ईवीएम से किनारा कर लिया है। लेकिन भारत अभी बाकी दुनिया की राह पर नहीं चलना चाहता। समय और संसाधन की बचत जैसे तर्क ईवीएम के पक्ष में दिए जाते हैं। ऐसे में यह विचारणीय मुद्दा खड़ा हो जाता है कि समय और संसाधन बचाते हुए हम लोकतांत्रिक व्यवस्था से जुड़े कुछ सवालों की अनदेखी तो नहीं कर रहे?