हमारे देश के उच्च शिक्षा संस्थानों को दुनिया के दो सौ स्तरीय संस्थानों में जगह नहीं मिल पाती, तो उसकी वजहें जाहिर हैं। विडंबना है कि तस्वीर और उसके कारण साफ होने के बावजूद समस्या के हल की दिशा में कोई ठोस प्रयास नहीं होता। देश के केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की कमी की समस्या लंबे समय से बनी हुई है। मगर हर साल स्थिति और बदतर होते जाने के बीच इससे निपटना सरकार को जरूरी नहीं लगता। नतीजतन विश्वविद्यालयों में न सिर्फ शिक्षा की गुणवत्ता पर असर पड़ रहा है, बल्कि इससे शिक्षकों की कमी एक चिंताजनक स्थिति बनी हुई है। इस मसले पर सोमवार को राज्यसभा में पूछे गए सवाल पर एक बार फिर सरकार के पास यही जवाब था कि देश भर में केंद्रीय विश्वविद्यालय अध्यापकों की भारी कमी से जूझ रहे हैं। यह सिर्फ अंदाजा लगाया जा सकता है कि अगर उनतालीस केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के चालीस फीसद पद खाली हैं, तो वहां शैक्षणिक गतिविधियों और उनकी गुणवत्ता की क्या हालत होगी। सबसे ऊंचे दरजे की तकनीकी शिक्षा मुहैया कराने वाले संस्थानों में चालीस से पचास फीसद तक शिक्षकों के पद रिक्त हैं, जिनमें बड़ी तादाद अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित सीटों की है। कानपुर स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट आॅफ टेक्नोलॉजी जैसे कई संस्थानों में इसलिए भी खाली जगहों पर नियुक्तियां नहीं हो रही हैं कि वहां के अधिकारी शिक्षण की गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं करना चाहते। निश्चित रूप से यह अच्छी बात है और शायद इसी आधार पर यह दावा किया जाता है कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में पढ़ाई-लिखाई का स्तर राज्यों के विश्वविद्यालयों से बेहतर है। लेकिन सवाल है कि कुल मिला कर शोध और शिक्षण का वह कौन-सा स्तर है और इस पेशे के प्रति आकर्षण की क्या स्थिति है कि हमारे बेहतरीन उच्च शिक्षा संस्थानों के लिए उनकी कसौटी पर खरा उतरने वाले बेहतरीन शिक्षक नहीं मिल पा रहे हैं।
हालांकि शैक्षणिक या गैर-शैक्षणिक पदों पर नियुक्ति जैसे मामलों में विश्वविद्यालयों को स्वायतत्ता मिली हुई है। इसमें कुलपति को विशेष अधिकार हासिल है। लेकिन गुणवत्ता और कसौटी के अलावा जो सबसे बड़ी समस्या पेश की जाती है वह है धन का अभाव। इसमें काफी हद तक सच्चाई भी है। दरअसल, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने विश्वविद्यालयों को इस तर्क पर तकनीकी पाठ्यक्रम शुरू करने की इजाजत दे रखी है कि वे अपने खर्च का कुछ हिस्सा खुद जुटाएं। लेकिन सवाल है कि क्या इस रास्ते होने वाली आमदनी से खाली पदों पर होने वाली नियुक्तियों का खर्च निकाला जा सकता है। यह बेवजह नहीं है कि प्रयोगशालाओं, पुस्तकालयों, खेल परिसरों आदि में सुविधाओं और संसाधनों के घोर अभाव से जूझते विश्वविद्यालयों की सबसे बड़ी समस्या आज शिक्षकों की कमी हो चुकी है, जिसके चलते शैक्षणिक सत्र समय पर पूरे नहीं हो पा रहे हैं। इन संस्थानों से निकलने वाले विद्यार्थियों के बीच विदेशों में प्रतिभा पलायन और शिक्षण को कॅरियर के रूप में न चुनना शिक्षकों की कमी की एक वजह हो सकती है। लेकिन जब भी शिक्षकों की कमी के आंकड़े सामने आते हैं तो कहने को सरकार इस पर चिंता जताती है और तत्परता से विचार कर नए तरीके से समाधान खोजने और समस्या से निपटने का भरोसा देती है। पर जरूरत इस बात की है कि विश्वविद्यालयों में अनुसंधान के पहलू को मजबूत बनाया जाए, ताकि संस्थानों को गुणवत्ता के तर्क के सहारे नियुक्तियों को टालने की जरूरत महसूस न हो।
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