राष्ट्रीय महिला आयोग को और सशक्त बनाने की केंद्र सरकार की पहल सराहनीय है। यों हमारे संविधान ने पुरुषों और स्त्रियों को समान अधिकार दिए हैं। लेकिन जहां तमाम स्त्री-विरोधी रूढ़ियां सदियों से चली आ रही हों और स्त्रियों की उपेक्षा, यहां तक उनके खिलाफ हिंसा और उत्पीड़न की भी तमाम स्थितियां बनी हुई हों, वहां केवल समान अधिकार का संवैधानिक प्रावधान पर्याप्त नहीं माना जा सकता। लिहाजा, देर से ही सही, महिला सशक्तीकरण के मकसद से 1990 में राष्ट्रीय महिला आयोग की स्थापना की पहल हुई, संसद ने इसके लिए अधिनियम पारित किया। और फिर दो साल बाद आयोग का गठन हो गया। बाईस वर्षों के इतिहास में इसकी अनेक उपलब्धियां गिनाई जा सकती हैं। महिलाओं से संबंधित नीतिगत मसलों पर आयोग अपने सुझाव देने के अलावा हस्तक्षेप भी करता रहा है। लेकिन कुल मिलाकर इसकी भूमिका सिफारिशी होकर रह गई है। बल्कि यह कहना भी गलत नहीं होगा कि बहुत बार प्रशासनिक अधिकारी आयोग के निर्देशों की तनिक परवाह नहीं करते।

यह बात राज्यों के भी महिला आयोगों पर लागू होती है। इसलिए लंबे समय से मांग उठती रही है कि महिला आयोगों को और अधिकार दिए जाएं। अच्छी बात है कि केंद्र सरकार ने इस दिशा में कदम बढ़ा दिए हैं। बीते हफ्ते कानून मंत्रालय ने राष्ट्रीय महिला आयोग से संबंधित अधिनियम में संशोधन के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है। इसके कानूनी शक्ल अख्तियार कर लेने पर राष्ट्रीय महिला आयोग को लगभग वे सारे अधिकार होंगे जो राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को हासिल हैं। अलबत्ता मानवाधिकार आयोग के पास भी उतनी शक्तियां नहीं हैं जितनी होनी चाहिए। कानून में प्रस्तावित संशोधन के मुताबिक राष्ट्रीय महिला आयोग को सिविल अदालत के अधिकार दिए जाएंगे। फिर आयोग आरोपियों के खिलाफ जांच करने और नोटिस का पालन न करने वालों पर जुर्माना लगा सकेगा। अपराध को दोहराने वाले आरोपियों को हिरासत में लेने का निर्देश वह पुलिस को दे सकेगा। आयोग जांच एजेंसियों को कह सकेगा कि वे एक समय-सीमा में अपनी रिपोर्ट उसे दें। जुर्माना वसूलने की जिम्मेवारी संबंधित जिला अदालत की होगी। लेकिन आयोग के अधिकारों के अलावा एक अहम मसला इसमें होने वाली नियुक्तियों का भी रहा है। सत्ता की करीबी किसी शख्सियत को आयोग की कमान सौंप देने का जैसे चलन हो गया है।

विधि मंत्रालय ने पहले यह मांग खारिज कर दी थी कि महिला आयोग को भी मानवाधिकार आयोग जैसे अधिकार दिए जाएं। मंत्रालय की दलील थी कि मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष न्यायिक पृष्ठभूमि का होता है, जबकि महिला आयोग के मामले में ऐसा नहीं है। लेकिन अब मंत्रालय ने सकारात्मक रुख दिखाया है। खबर है कि अधिनियम में प्रस्तावित संशोधन के तहत यह भी व्यवस्था की जाएगी कि आयोग के अध्यक्ष का पद सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों के सेवानिवृत्त जजों में से ही किसी को सौंपा जाए। अच्छा होगा कि इसका फैसला सरकार इकतरफा ढंग से न करे, बल्कि एक चयन समिति बनाई जाए जो निष्पक्ष मालूम पड़े। अल्पसंख्यक आयोग, अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग, पिछड़ा वर्ग आयोग जैसी और भी संवैधानिक संस्थाएं हैं, जो कमजोर-शोषित तबकों के हितों की रक्षा के लिए बनी हैं। पर ये भी नख-दंत विहीन रही हैं। इन आयोगों को भी अधिक अधिकार देने की जरूरत है ताकि वे अपने उद्देश्य के लिए ज्यादा प्रभावी भूमिका निभा सकें।

 

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