सूखे के भयानक असर की व्यापकता रोजाना सामने आ रही है। मसलन, महाराष्ट्र के लातूर में सौ करोड़ की एक इस्पात फैक्टरी सूखे की वजह से बंद हो गई। देश के दस राज्य सूखे की चपेट में हैं। बड़े पैमाने पर खेती चौपट हुई है और पानी की समस्या लगातार और विकराल होती जा रही है। जल संकट का यही आलम रहा, तो न जाने कितने उद्योग-धंधों के सामने वजूद का सवाल खड़ा हो जाएगा।
इस चतुर्दिक संकट में कई सबक छिपे हैं। सबसे पहला यह कि पर्यावरण और खेती को अलग-थलग करके न देखें। इस बात को बार-बार दोहराना इसलिए जरूरी है कि हमारे नीति नियंताओं के नजरिए और रवैए से ऐसा लगता है कि मानो उद्योग क्षेत्र, मैन्युफैक्चरिंग और सेवा क्षेत्र ही मायने रखते हैं; अगर इनके बल पर जीडीपी की वृद्धि दर ऊंची रखी जा सके तो यह मान कर चला जाता है कि सब कुछ ठीकठाक है। लेकिन कृषि का मामला केवल जीडीपी का नहीं है।
कृषि की फिक्र हमें देश की खाद्य सुरक्षा की फिक्र से भी जोड़ती है और जलवायु तथा पर्यावरण की चिंता से भी। उम्मीद थी कि बुधवार को संसद में सूखे पर चर्चा होगी। पर सत्तापक्ष और विपक्ष की ज्यादा दिलचस्पी एक दूसरे को घेरने वाले मुद्दों में है। देश के सत्तर करोड़ लोग सूखे से प्रभावित हैं। फिर लोगों पर ही नहीं, सूखे की मार सभी पर पड़ती है, पशु-पक्षियों से लेकर मिट्टी-पानी-वनस्पति तक। यह ऐसा नुकसान है जिसकी भरपाई कोई भी राहत-योजना नहीं कर सकती। फिर भी ऐसे संकट के समय सरकार से जरूर यह उम्मीद की जाती है कि वह राहत के कार्यक्रम चलाएगी। गुजरात और हरियाणा समेत कई राज्यों में पिछले साल सितंबर में ही साफ हो गया था कि सूखे के हालात हैं। पर सूखे की घोषणा इस साल अप्रैल में जाकर की गई, जिसके लिए उन्हें सुप्रीम कोर्ट की फटकार भी सुननी पड़ी।
‘स्वराज अभियान’ की याचिका पर सुनवाई करते हुए कुछ दिन पहले सर्वोच्च अदालत ने केंद्र सरकार को भी खरी-खोटी सुनाई थी। याचिका में मांग की गई थी कि सूखे के मद््देनजर केंद्र को मनरेगा की रुकी धनराशि जारी करने और खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत जरूरतमंदों को खाद्यान्न मुहैया कराने का निर्देश दिया जाए। दरअसल, केंद्र ने मनरेगा का आबंटन बढ़ाना तो दूर, पिछले साल का बकाया तक राज्यों को नहीं दिया था, जिसकी वजह से राज्य सरकारें जरूरतमंदों को काम देने से कतरा रही थीं।
यह उस सरकार का हाल है जो ‘ग्राम उदय से भारत उदय’ का दम भरती है। उसके पास से मनरेगा की बकाया धनराशि निकलवाने के लिए अदालत के निर्देश की जरूरत पड़ती है। यह सही है कि सूखा कम बारिश की देन है। पर यह कुदरती पहलू है, सूखे के मानव-जनित आयाम भी हैं। पानी की बर्बादी और पानी के कुप्रबंध के साथ-साथ पहले से चले आ रहे खेती-किसानी के संकट ने सूखे की मार को और घातक बना दिया है। खेती अगर लाभकारी धंधा होती, तो एक मौसम की मार किसान सहजता से सह लेते, जैसे कि वे सदियों से सहते आए थे। पर खेती के पुसाने लायक न रह जाने से मौसम की प्रतिकूलता उनके लिए घोर मुसीबत बन कर आती है। भाजपा ने वादा किया था कि वह सत्ता में आई तो किसानों को उनकी उपज का लागत से डेढ़ गुना दाम दिलाएगी। पर उसने अब इस पर चुप्पी साध ली है!