महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे से बगावत कर शिव सेना के कुछ विधायकों ने अलग पार्टी बनाने का एलान कर दिया था। इस तरह उद्धव ठाकरे की सरकार पर बहुमत का संकट पैदा हो गया था। तब तत्कालीन राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने उद्धव ठाकरे को बहुमत साबित करने का आदेश दिया था। तब खासा राजनीतिक नाटक हुआ था और ठाकरे ने आखिरकार बहुमत पेश करने के बजाय अपने पद से इस्तीफा दे दिया था।

इसे लेकर राज्यपाल की भूमिका पर सवाल उठने शुरू हो गए थे। शुरू में ही जब शिव सेना ने भाजपा के बजाय राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस के साथ मिल कर महा विकास अघाड़ी सरकार बनाने का फैसला किया था, तब भी राजनीतिक उठापटक के बीच कोश्यारी ने अफरातफरी में भाजपा के मुख्यमंत्री को शपथ दिला दी थी।

इससे उन पर आरोप लगने लगा था कि वे वही कर रहे हैं, जो केंद्र चाहता है। अदालत ने भी उनके व्यवहार को अनुचित ठहराया है। इसी तरह दिल्ली में उपराज्यपाल वीके सक्सेना ने एक तरह से चुनी हुई सरकार के सारे अधिकार अपने हाथों में ले लिए थे और प्रशासनिक कामकाज में लगातार अड़ंगा डाल रहे थे। इस पर अधिकारों की व्याख्या के लिए सर्वोच्च न्यायालय में गुहार लगाई गई थी और अब संविधान पीठ ने चुनी हुई सरकार के पक्ष में फैसला दिया है।

दिल्ली में उपराज्यपाल और चुनी हुई सरकार के बीच तनातनी शुरू से ही चली आ रही थी। वीके सक्सेना से पहले भी जो उपराज्यपाल आए, उन्होंने दिल्ली सरकार के हर फैसले में रोड़ा अटकाने का प्रयास किया। खासकर प्रशासनिक अधिकारियों की तैनाती और तबादले को लेकर एक तरह से दिल्ली सरकार का अधिकार ही छीन लिया गया था।

तब भी करीब पांच साल पहले सर्वोच्च न्यायालय में अधिकारों की यह लड़ाई पहुंची थी और उसने फैसला दिया था कि अफसरों की तैनाती और तबादले का अधिकार चुनी हुई सरकार को है। मगर फिर भी उपराज्यपाल ने अपनी मर्यादा का ध्यान नहीं रखा। अब सर्वोच्च न्यायालय ने कह दिया है कि उपराज्यपाल को बेशक राष्ट्रपति की तरफ से प्रशासनिक कामकाज देखने के लिए नियुक्त क्या गया है, मगर चुनी हुई सरकार को ताकत देना बहुत जरूरी है। देखना है, अब भी उपराज्यपाल अपनी मर्यादा का पालन करते हैं या नहीं।

दरअसल, राज्यपाल और उपराज्यपालों की नियुक्ति इसलिए की जाती है कि वे राज्य लरकारों को किसी प्रकार का अनुचित फैसला करने से रोक सकें। मगर जबसे इन पदों पर राजनीतिक नियुक्तियां की जाने लगी हैं, तबसे इस पद की मर्यादा कहीं हाशिये पर चली गई है। अब राज्यपाल और उपराज्यपाल प्राय: राजनीतिक लोग होते हैं।

केंद्र सरकार अपने ऐसे लोगों को इन पदों पर नियुक्त कर उन्हें उपकृत करने और उनके जरिए अपने विपक्षी दल की सरकारों पर अंकुश लगाने का प्रयास करती देखी जाती है, जो सक्रिय राजनीति में लगभग अप्रभावी हो चुके हैं। ऐसे लोग चूंकि लंबे समय तक राजनीति कर चुके होते हैं और अपनी पार्टी के वफादार होते हैं, इसलिए वे सियासी दाव-पेंच से बाज नहीं आते। यही वजह है कि चाहे पश्चिम बंगाल हो, केरल, राजस्थान या दिल्ली, राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच मधुर संबंध नहीं देखे गए। सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले से वे अपनी मर्यादा का कितना ध्यान रखेंगे, देखने की बात है।