तमाम कोशिशों के बावजूद सुरक्षित सफर सुनिश्चित करा पाना रेलवे के लिए कठिन काम बना हुआ है। कभी कोई गाड़ी पटरी से उतर जाती है, तो कभी दो गाड़ियां आपस में टकरा जाती हैं। हालांकि दावा किया जाता है कि गाड़ियों में टक्कररोधी उपकरण लगाने और कंप्यूटरीकृत यातायात संचालन व्यवस्था होने के बाद से हादसों में कमी आई है।
मगर बीते छह महीनों पर नजर डालें तो कई बड़े हादसे हो चुके हैं, जिनमें सैकड़ों लोगों की जान चली गई और सैकड़ों घायल हुए। अभी बारह घंटे के भीतर दो गाड़ियों में आग लगने की घटनाएं उसी सिलसिले में जुड़ गई हैं। बुधवार को एक तेज रफ्तार गाड़ी दिल्ली से दरभंगा के लिए रवाना हुई थी। उत्तर प्रदेश के इटावा पहुंचते ही उसके तीन डिब्बों में आग लग गई।
गनीमत थी कि गाड़ी अभी स्टेशन से रवाना ही हुई थी और कर्मचारियों ने उसमें से धुआं उठता देखा और रुकवा लिया। इस तरह कोई बड़ा हादसा होने से बच गया। मगर वहीं दूसरी गाड़ी में आग लगने से उन्नीस लोग घायल हो गए। आग लगने की वजह से वे चलती गाड़ी से कूदने और भागने लगे थे। दूसरी गाड़ी भी दिल्ली से बिहार के वैशाली जा रही थी।
रेल गाड़ियों में आग लगने की बड़ी वजह उनमें लगे खराब गुणवत्ता वाले तार और उन्हें जोड़ने आदि में बरती गई लापरवाही होती है। गरम होकर जब दो तार आपस में चिपक जाते हैं, तो चिनगारी फूटने लगती है। दोनों घटनाएं रात के वक्त हुर्इं, जब ज्यादातर मुसाफिर सो रहे थे। जब भी तारों के चिपक कर जल उठने की घटना होती है, तो उसकी आहट पूरे डिब्बे में आग के फैलने से पहले मिल जाती है।
जाहिर है, इन दोनों घटनाओं के वक्त भी तारों के जलने की बदबू डिब्बे में फैली होगी। मगर समय रहते किसी तकनीकी सहयोगी ने उस पर काबू पाने की कोशिश नहीं की, इसलिए आग फैली। ज्यादा संभव है कि उन गाड़ियों में कोई तकनीकी सहयोगी रहा ही न हो। आमतौर पर डिब्बों में जो सहायक तैनात किए जाते हैं, वही बिजली आदि से संबंधित गड़बड़ियों को सुधारने या सुधरवाने की जिम्मेदारी उठाते हैं।
मगर जिन दोनों गाड़ियों में आग लगी, वे विशेष गाड़ियां थीं, जो छठ के मद्देनजर चलाई गई थीं। फिर उनके जिन डिब्बों में आग लगी वे सामान्य शयनयान थे। इसलिए जाहिर है, उनमें भीड़ भी कुछ अधिक रही होगी और उनमें सहायकों की तैनाती उस तरह नहीं की गई होगी, जैसे दूसरी गाड़ियों के विशेष वातानुकूलित डिब्बों में की जाती है।
दरअसल, त्योहारों के मौकों पर विशेष गाड़ियां चला कर रेलवे यात्रियों के दबाव को कम करने की कोशिश तो करता है, मगर वह उनमें वैसी सेवाएं नहीं दे पाता जैसी दूसरी गाड़ियों में होती हैं। ऐसी गाड़ियों में लगे ज्यादातर डिब्बे प्राय: नियमित उपयोग के अतिरिक्त सुधार के लिए आए या सुधार कर रखे गए होते हैं।
उन्हें इंजन के साथ जोड़ कर पटरियों पर दौड़ा तो दिया जाता है, मगर इस बात का गंभीरता से ध्यान नहीं रखा जाता कि आखिर वे लंबी दूरी का सफर तय करने के लिए सुरक्षित हैं भी या नहीं। फिर, अनेक बार घोषणाओं के बावजूद अभी तक रेल गाड़ियों और उनके डिब्बों को किसी केंद्रीकृत सुरक्षा प्रणाली से जोड़ने में कामयाबी नहीं मिल पाई है। ऐसेहादसों के वक्त चालक तक चेतावनी पहुंचाने की व्यवस्था भी नहीं होती। ऐसे लापरवाह रवैए के साथ रेलवे कहां तक सुरक्षित सफर का भरोसा दिला सकता है!