देश में शिक्षा के व्यवसायीकरण के बढ़ते दायरे का विद्रूप कई बार बेहद अफसोसनाक तस्वीर सामने कर देता है। निजी विद्यालयों में मनमानी इस कदर बढ़ती जा रही है कि वे विद्यार्थियों को केवल कमाई का जरिया समझने लगे हैं। ऐसा लगता है कि मुनाफाखोरी में लगे ये विद्यालय इस बात की बिल्कुल परवाह नहीं करते कि महंगाई के इस दौर में बच्चों को किसी तरह पाल रहे कुछ माता-पिता कैसे अतिरिक्त शुल्क का बोझ सहेंगे। हालांकि इनमें ज्यादातर शुल्कों का कोई मजबूत आधार नहीं होता है, लेकिन संबंधित सरकारी महकमे अपनी आंखें मूंद कर एक तरह से इसकी अनुमति ही देते हैं।
नतीजतन मनमानी बढ़ती जाती है। तकलीफदेह यह है कि शुल्क वसूलने के क्रम में स्कूल प्रबंधन की ओर से कई बार ऐसे तौर-तरीके अपनाए जाते हैं, जो न केवल नियमों के विरुद्ध होते हैं, बल्कि उसके लिए मानवीयता के सारे तकाजों को ताक पर रख दिया जाता है। गौरतलब है कि देश की राजधानी के द्वारका इलाके में स्थित दिल्ली पब्लिक स्कूल में अनधिकृत शुल्क का भुगतान न करने पर कुछ बच्चों को पुस्तकालय में बंद कर दिया गया और उन्हें कक्षाओं में जाने से भी रोक दिया गया।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने स्कूल प्रबंधन को लगाई फटकार
इस तरह के अमानवीय व्यवहार पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने सही ही स्कूल प्रबंधन को फटकार लगाई और कहा कि छात्रों के साथ गुलामों जैसा व्यवहार करने वाले ऐसे स्कूल बंद करने लायक हैं। जबकि किसी भी वजह से स्कूलों में बच्चों को कोई भी शारीरिक दंड देने पर सख्त मनाही है और समय-समय पर अदालतें भी इसके खिलाफ निर्देश जारी करती रही हैं। किसी भी तरह के भेदभाव और सार्वजनिक प्रताड़ना से बच्चों को कोमल मन-मस्तिष्क को ठेस पहुंचती है और इससे लगे सदमे का असर लंबे समय तक बना रह सकता है।
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यह बाल अधिकारों का भी हनन है। दूसरी ओर माता-पिता स्वयं को अपमानित और प्रताड़ित महसूस करते हैं। ऐसी स्थिति में विद्यार्थियों का उत्पीड़न रोकने के लिए सुरक्षा उपाय होने चाहिए। मनमाने तरीके से शुल्क वसूलने के लिए विद्यालय द्वारा किसी भी तरह का भेदभाव हर हाल में अनुचित है। बच्चों को वस्तु समझ कर बर्ताव करने वाले स्कूलों पर सख्ती से लगाम लगाने की जरूरत है।