दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच तकरार पुरानी है। दोनों के बीच जब-तब नए विवाद उठ खड़े होते हैं। पिछले वर्ष दिल्ली नगर निगम यानी एमसीडी के चुनाव में ‘एल्डरमैन’ यानी विशेषज्ञ सदस्यों को नामित करने के मुद्दे पर खड़ा हुआ विवाद इसी की एक कड़ी था। उपराज्यपाल ने दस सदस्य नामित किए थे, जिन्हें लेकर आम आदमी पार्टी ने एतराज जताया कि ये सभी सदस्य भाजपा से संबद्ध हैं और एमसीडी के जोनों में मतदान कर चुनी हुई एमसीडी का गणित खराब कर सकते हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने उपराज्यपाल की स्थिति पर दी राय

मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा था। चुनौती दी गई कि उपराज्यपाल बिना दिल्ली सरकार के मंत्रिमंडल से सलाह लिए सदस्यों को नामित नहीं कर सकते। तब अदालत ने नामित सदस्यों को मतदान करने से रोक दिया था, पर यह आशंका जताई थी कि उपराज्यपाल द्वारा नामित सदस्य निर्वाचित एमसीडी को अस्थिर कर सकते हैं। तब लगा था कि फैसला दिल्ली सरकार के पक्ष में आएगा। मगर अब सर्वोच्च न्यायालय ने साफ कर दिया है कि उपराज्यपाल बिना मंत्रिमंडल की सलाह के, सदस्यों को नामित कर सकते हैं। यह मामला कार्यकारी फैसलों की प्रकृति का नहीं है।

पिछले एमसीडी चुनाव में आम आदमी पार्टी ने ढाई सौ में से एक सौ चौंतीस सीटें जीती थी। भाजपा को एक सौ चार सीटों पर कामयाबी मिली थी। तब उपराज्यपाल ने दस सदस्यों को नामित कर उन्हें महापौर और उपमहापौर के चुनाव में मतदान करने की इजाजत दे दी थी। इस तरह गड़बड़ी करके भाजपा के अपना महापौर बनाने की कोशिश की आशंका जताई जाने लगी थी। ऐसा चंडीगढ़ नगर निगम में भाजपा पहले कर चुकी थी। फिर, नामित सदस्यों के मताधिकार और उपराज्यपाल द्वारा सदस्यों को नामित करने के अधिकार को लेकर सवाल उठने शुरू हो गए थे। नियम के मुताबिक नामित सदस्य एमसीडी जोनों के चेयरमैन के चुनाव में हिस्सा ले सकते हैं। इससे कुछ जोनों में आम आदमी पार्टी का गणित गड़बड़ हो रहा था।

अब सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद आम आदमी पार्टी उपराज्यपाल के अधिकारों को चुनौती नहीं दे सकती। हालांकि चुनावी गणित और अधिकारों की जंग में यह सवाल अपनी जगह है कि आखिर सदस्यों को नामित करने की प्रक्रिया में लोकतांत्रिक मूल्यों का कितना ध्यान रखा जाता है। एमसीडी में दस सदस्यों को नामित करने का प्रावधान इस मकसद से किया गया था कि इस तरह कुछ विशेषज्ञों को निगम में रखा जा सकेगा, ताकि उनके अनुभवों का लाभ मिल सके। मगर जिस तरह पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ताओं को उपकृत करने की मंशा से नामित किया जाने लगा है, उससे वह तकाजा पूरा नहीं हो पाता।

दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच अधिकारों की तरकार में दिल्ली के विकास कार्यों की गति काफी प्रभावित हुई है। हर मामूली बात पर दोनों के बीच जंग छिड़ जाती है और मामला अदालत में पहुंच जाता है। कई बार उपराज्यपाल दिल्ली मंत्रिमंडल के फैसलों या मंत्रियों की सिफारिशों को रद्द कर या टाल देते हैं। इस तरह बहुत सारे काम रुक जाते हैं। जबसे केंद्र सरकार ने दिल्ली की निर्वाचित सरकार के बजाय उप राज्यपाल के अधिकारों को ऊपर रखने का कानून बना दिया है, तबसे यह स्पष्ट हो चुका है कि केंद्र सरकार खुद दिल्ली के सरकारी कामकाज में हस्तक्षेप करती है। अब आम लोग इस तनातनी से ऊब चुके हैं और उन्हें बुनियादी समस्याओं के निपटारे की आस है।