किसी भी देश में अगर शिक्षा की पहुंच समाज के सबसे कमजोर समूहों तक नहीं हो पाती है तो वहां का विकास सवालों के कठघरे में खड़ा होगा। भारत में आजादी के बाद से लेकर अब तक सरकार की ओर से शिक्षा के प्रसार के लिए जो भी प्रयास किए गए, उससे वंचित सामाजिक समूहों के बीच साक्षरता की तस्वीर में कुछ सुधार आया। विडंबना यह है कि अर्थव्यवस्था के चमकते आंकड़ों के बीच देश में शिक्षा के मोर्चे पर अब भी जो स्थिति है, उसे संतोषजनक नहीं कहा जा सकता।

उच्च शिक्षा के दरवाजे तक पहुंचना तो दूर, आज भी लाखों बच्चे स्कूली शिक्षा के दायरे से बाहर हैं और अलग-अलग वजहों से हर वर्ष अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं। केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय की एकीकृत जिला शिक्षा सूचना प्रणाली की एक रपट में ये तथ्य सामने आए हैं कि वर्ष 2022-23 में स्कूलों में कुल 25.17 करोड़ विद्यार्थी नामांकित थे, जबकि 2023-24 में यह संख्या घट कर 24.80 करोड़ रह गई। रपट के मुताबिक, प्राथमिक, उच्च प्राथमिक और उच्चतर माध्यमिक स्कूलों में विद्यार्थियों के नामांकन में 37.45 लाख की गिरावट आई है। इस अवधि में पढ़ाई बीच में ही छोड़ने वाले बच्चों की संख्या में भी खासी बढ़ोतरी हुई। शिक्षा के दायरे से बाहर होने वालों में ज्यादा संख्या समाज के कमजोर और वंचित तबकों के बच्चों की है।

स्कूल में एडमिशन लेने वाली संख्या में आ रही गिरावट

सवाल है कि जिस दौर में शिक्षा के व्यापक प्रसार और सब तक इसकी पहुंच के लिए सरकार हर स्तर पर कदम उठाने के दावे कर रही है, नई नीतियों की घोषणाएं हो रही हैं, उसमें स्कूलों में दाखिला लेने वाले बच्चों की संख्या में इतनी बड़ी गिरावट कैसे दर्ज की जा रही है। शिक्षा मंत्रालय की रपट के ही मुताबिक, देश में केवल सत्तावन फीसद स्कूलों में कंप्यूटर है, जबकि तिरपन फीसद में इंटरनेट की सुविधा है। वहीं पिछले कुछ समय से अलग-अलग वजहों से अक्सर स्कूलों में आनलाइन या डिजिटल पढ़ाई पर जोर दिया जा रहा है। जबकि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले ऐसे तमाम बच्चे हैं, जिनके परिवारों में सबके लिए अलग-अलग कंप्यूटर या स्मार्टफोन की सुविधा अभी भी एक सपना है।

परीक्षाओं में लगातार पर्चे लीक, अभ्यर्थियों का करियर बना मजाक, इस दर्द का जिम्मेदार कौन?

सवाल है कि वंचना की अनेक परतों का सामना कर रहे परिवार अपने बच्चों को स्कूल भेज सकें, उन्हें गुणवत्ता से लैस शिक्षा मिल सके, इसके लिए वंचित तबकों के अनुकूल नीतियां जमीन पर कब उतरेंगी? स्कूली शिक्षा की तस्वीर में सुधार सिर्फ सरकारी आश्वासनों और दावों तक क्यों सीमित है और जमीनी हकीकत एक निराशाजनक तस्वीर क्यों दिखाती है?

सरकारी की जगह प्राइवेट स्कूलों में जा रहे बच्चे

साक्षरता की औपचारिकता गुणवत्ता आधारित शिक्षा सुनिश्चित नहीं करती। आबादी के जिस हिस्से के पास आर्थिक सामर्थ्य है, वह अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेज कर उनका भविष्य बेहतर बना सकता है। मगर समाज के उन तबकों के बच्चों को गुणवत्ता आधारित शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए क्या किया जा रहा है, जो लगातार अभाव से दो-चार जिंदगी के जद्दोजहद से गुजरते रहते हैं।

2008 की मंदी के बाद सबसे बड़ी गिरावट, भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए चिंता का विषय

निश्चित तौर पर अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर मजबूती देश के लिए जरूरी है, लेकिन अगर यहां के कमजोर सामाजिक समुदायों के बच्चे किसी भी वजह से पढ़ाई-लिखाई से दूर हो रहे हैं तो इसके लिए किसकी जिम्मेदारी तय होगी? शिक्षा का अधिकार और सामाजिक कल्याण के अन्य कार्यक्रमों के बावजूद गरीबी या संसाधनों के अभाव के कारण अगर बहुत सारे बच्चे स्कूल के दरवाजे तक नहीं पहुंच पा रहे हैं या किसी वजह से बीच में ही उनके सामने स्कूल छोड़ देने की नौबत आ रही है तो यह स्थिति दशकों से क्यों बनी हुई है?