भाजपा के नेता और राज्यसभा सदस्य सुब्रमण्यम स्वामी अब भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमनियन के पीछे हाथ धोकर पड़ गए हैं। इस तरह उन्होंने पार्टी और सरकार, दोनों को सांसत में डाल दिया है। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने सुब्रमनियन का बचाव करते हुए कहा है कि उन पर सरकार को पूरा भरोसा है; उनके बारे में स्वामी का बयान उनका निजी विचार है, उससे पार्टी या सरकार का कोई लेना-देना नहीं है। पर सवाल है कि स्वामी विपक्ष के नेता नहीं हैं, वे सत्तारूढ़ दल से नाता रखते हैं, फिर वे क्यों अरविंद सुब्रमनियन पर निशाना साध रहे हैं जिन्हें इसी सरकार ने नियुक्त किया है? उनका हौसला इस हद तक कैसे बढ़ा? इसके लिए भाजपा नेतृत्व कम दोषी नहीं है। कुछ दिन पहले तक सुब्रमण्यम स्वामी रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन के खिलाफ निंदा अभियान छेड़े हुए थे। जान-बूझ कर ब्याज दरें घटाने से इनकार करने और इस तरह देश की अर्थव्यवस्था को इरादतन नुकसान पहुंचाने का आरोप वे राजन पर लगातार लगाते रहे। ब्याज दरों को लेकर वित्तीय विशेषज्ञों के बीच अक्सर मतभेद की गुंजाइश रहती है।
रघुराम राजन के कार्यकाल में भी, जब भी मौद्रिक नीति घोषित हुई, आर्थिक विश्लेषकों की अलग-अलग राय सामने आई। पर किसी ने भी, सुब्रमण्यम स्वामी की तरह, रघुराम राजन की नीयत में खोट नहीं बताया। लेकिन स्वामी, भारत के हितों के प्रति राजन की निष्ठा पर सवाल उठाने की हद तक चले गए। फिर, प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर रिजर्व बैंक के गवर्नर पद से उन्हें हटाने की मांग कर डाली। आखिरकार स्वामी ने तभी चैन की सांस ली, जब रघुराम राजन ने एलान कर दिया कि वे चार सितंबर के बाद दूसरा कार्यकाल नहीं लेंगे। इसके बाद स्वामी यह दावा करने से नहीं चूके कि राजन की विदाई सुनिश्चित हो जाना उन्हीं की मुहिम का नतीजा है। हो सकता है, राजन की आसन्न विदाई भांप कर स्वामी श्रेय लेने के लिए कूद पड़े हों।
सवाल है कि क्या अरविंद सुब्रमनियन की तरह रघुराम राजन की बाबत भी स्वामी के आरोप ‘निजी विचार’ थे? अगर ऐसा था तो भाजपा और सरकार ने दृढ़ता से हस्तक्षेप और रघुराम राजन को पद पर बनाए रखने का प्रयत्न क्यों नहीं किया? अब जब स्वामी ने मुख्य आर्थिक सलाहकार पर हमला बोला है, तो सरकार इसे उनका निजी विचार कह कर पल्ला झाड़ लेना चाहती है। पर स्वामी की टिप्पणियों को बस निजी विचार कह कर टालने की कोशिश करना बहुत ही हल्की प्रतिक्रिया मानी जाएगी। जबकि सरकार को अपने मुख्य आर्थिक सलाहकार के पद की प्रतिष्ठा की फिक्र है, तो उसे कुछ ऐसा कदम उठाना चाहिए जो कार्रवाई जैसा दिखे। इसके बगैर स्वामी के बयान से दूरी दिखाने की कोशिश बेकार की कवायद ही साबित होगी। हाल में स्वामी को राज्यसभा में भेज कर उनका सियासी कद भाजपा नेतृत्व ने ही बढ़ाया है। यही नहीं, उन्हें मनोनयन के जरिए राज्यसभा की सदस्यता दी गई, जो कि परिपाटी के खिलाफ है। मनोनयन का प्रावधान पार्टी से जुड़े या सक्रिय राजनीति के लोगों के लिए नहीं बल्कि अन्य विभिन्न क्षेत्रों में विशिष्ट योगदान कर चुके लोगों को ध्यान में रख कर किया गया था। स्वामी पर इतनी मेहरबानी बरसाने की जो भी अगम्य-अबूझ वजह रही हो, एक के बाद एक किसी न किसी पर कीचड़ उछालते रहने की उनकी फितरत भाजपा को बहुत महंगी साबित हो सकती है।