नई दिल्ली में होने वाले जी20 शिखर सम्मेलन के मद्देनजर चीन ने अपनी जो सदिच्छा जताई है, अगर वह इस पर अमल को लेकर भी गंभीर होता है तो यह एक सकारात्मक पहल होगी। विडंबना यह है कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी घोषणाओं और सरोकारों के प्रति चीन को शायद ज्यादा ईमानदार होने की जरूरत है।
दरअसल, जी20 शिखर सम्मेलन की कामयाबी के लिए चीन ने सभी पक्षों के साथ मिल कर काम करने को लेकर सहमति जाहिर की है। निश्चित रूप से इस सम्मेलन से पहले चीन की ओर आया संदेश एक उम्मीद जगाता है कि दुनिया के ज्यादातर देश जिस सहयोग और शांति के सपने के साथ एक दूसरे के साथ मिल कर नए रास्ते तैयार करने की कोशिश में लगे हैं, उसमें और मजबूती आएगी।
यों चीन का दावा है कि वह जी20 समूह को उच्च महत्त्व देता है और प्रासंगिक गतिविधियों में सक्रिय रूप से हिस्सा लेता रहा है। हालांकि इस बार नई दिल्ली में होने वाले आयोजन में पहले चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के आने की संभावना थी, लेकिन अब वे इसमें शामिल नहीं होंगे। उनकी जगह वहां के प्रधानमंत्री ली क्विंग चीन की नुमाइंदगी करेंगे।
दरअसल, जी20 के सम्मेलन की सफलता को लेकर चीन के संदेश की अहमियत यह जरूर है कि उसने भारत की मेजबानी का समर्थन किया है और सभी के साथ मिल कर काम करने के लिए तैयार होने की बात कही है। लेकिन अगर केवल भारत के लिहाज से ही देखें तो पिछले कुछ समय से चीन ने जैसा रवैया अख्तियार किया हुआ है, वह अपने आप में यही दर्शाता है कि उसकी कथनी और करनी के बीच एक बड़ा फासला है।
उदाहरण के लिए हाल ही में संपन्न ब्रिक्स सम्मेलन में भारत के प्रधानमंत्री के साथ चीन के राष्ट्रपति के मुलाकात के बाद यह उम्मीद बंधी थी कि सीमा पर नियंत्रण रेखा पर चल रहे विवाद और चीन की अन्य हरकतों पर लगाम लगेगी। लेकिन इसके कुछ ही दिन बाद चीन की ओर से जो ‘मानक मानचित्र’ जारी हुआ, उसमें भारत के भी कुछ इलाकों को उसके भीतर दिखाया गया।
इस मसले पर भारत ने तीखी आपत्ति भी जाहिर की। सवाल है कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर समस्या के हल में सक्रिय सहभागिता करने और शांति की ओर कदम बढ़ाने की बात करते दिखने के कुछ ही दिन बाद उसे अपना रुख पलटने में कोई हिचक क्यों नहीं होती? ऐसे में उसके घोषित सरोकारों पर कितना भरोसा किया जाएगा?
गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र में मंगलवार को भारत ने साफ तौर पर कहा कि वैश्विक स्तर पर स्वीकृत आतंकवादियों के लिए वास्तविक, साक्ष्य-आधारित सूची प्रस्तावों को बिना कोई उचित कारण बताए रोकना गैरजरूरी है और जब आतंकवाद की चुनौती से निपटने में सुरक्षा परिषद की प्रतिबद्धता की बात आती है तो इसमें दोहरापन दिखाई देता है।
भारत के इस पक्ष का मजबूत आधार है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद प्रतिबंध समितियों की यह कार्यप्रणाली दरअसल सुरक्षा परिषद की ही विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचा रही है। समझा जा सकता है कि यह टिप्पणी दरअसल चीन और पाकिस्तान को कठघरे में खड़ा करती है, क्योंकि यह छिपा तथ्य नहीं है कि पाकिस्तान स्थित आतंकवादियों को सूचीबद्ध करने के भारत और उसके सहयोगी देशों के प्रयासों को सुरक्षा परिषद के अहम सदस्य के रूप में चीन ने बार-बार बाधित किया है।
यह बेवजह नहीं है कि अब एक ऐसी सुरक्षा परिषद की आवश्यकता पर जोर दिया जा रहा है जो आज संयुक्त राष्ट्र की भौगोलिक और विकासात्मक विविधता को बेहतर तरीके से प्रतिबिंबित करे। जाहिर है, सार्वजनिक मंचों पर चीन जो सदिच्छा जताता है, उस पर उसे ईमानदारी से अमल भी करना चाहिए।