भावना मासीवाल
धारणाओं का निर्माण कोई एक दिन की बात नहीं है। कोई एक बात किसी एक व्यक्ति या समूह से चलती है, चलन में आती है और वही परंपरा बन जाती है। वह व्यक्ति का बर्ताव हो या फिर वे विचार, जो व्यक्त किए जाते हैं। वह कौन-सा और कैसा वक्त रहा होगा, जब व्यवस्था में स्त्रियों की जगह और हैसियत निर्धारित की गई होगी, दर्जा तय हुआ होगा? यह सब किसने किया होगा? विडंबना यह है कि आज हम इस बात पर विचार कर सकने के पायदान पर तो पहुंच सके हैं, लेकिन कई प्रचलित विचारों और व्यवहारों को अनुचित और अन्यायपूर्ण मानते हुए भी उसके निर्वाह पर कोई ठोस हस्तक्षेप नहीं कर पाते और उन्हीं धारणाओं की धुरी के इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं।
हाल में पूरा देश जश्न के माहौल में दिखा, तो यह स्वाभाविक है, क्योंकि आज बेटियां अपने हुनर से न केवल अपना नाम रोशन कर रही हैं, बल्कि देश को भी गौरवान्वित कर रही है। जबकि हम सब यह जानते हैं कि हमारे समाज में लड़कियों पर पैदा होने के बाद से ही कितनी और किस तरह की घोषित-अघोषित पाबंदियां लगाई जाती हैं। लेकिन इन पाबंदियों के खिलाफ अक्सर लड़कियों ने अपनी आवाज को बुलंद किया है। यही आवाज आज के समय की लड़कियों की आजादी का आधार बनी है।
सच यह है कि खेलों के विश्व पटल पर उभरने और वहां संघर्ष करने का सफर आसान नहीं था। इसका एक सबसे बड़ा कारण खेल का बाजार और उसके माध्यम से व्यापार की दृष्टि है, जहां उन्हीं खेलों पर पैसा और समय अधिक लगाया जाता है, जिनसे धन की उगाही हो सके। यही कारण है कि हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल होने के बावजूद लंबे समय तक अंधेरे में ही रहा। आज हॉकी की चर्चा हो रही है। उसके खिलाड़ियों और परिवार को पूरा देश जानना चाह रहा है, क्योंकि आज हमारी पुरुष और महिला, दोनों ही टीमों ने दुनिया भर में एक खास जगह बनाई है।
हम यह भी कह सकते हैं कि ओलंपिक जैसी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताएं होने पर ही हमारे देश के अन्य खेलों को याद किया जाता है और इसकी समाप्ति के साथ ही बाकी सभी खेल और उसके होनहार खिलाड़ी मीडिया से लेकर सरकारी व्यवस्था तक में बंद फाइल का हिस्सा बना दिए जाते हैं। वहीं क्रिकेट जैसा खेल बारहों मास खेला जाता है, वही हर स्तर पर सुर्खियों में बना रहता है। क्रिकेट में हमने खिलाड़ियों को ‘भगवान’ का दर्जा दे दिया और वहीं अन्य खेलों के खिलाड़ियों को खिलाड़ी भी बने रहने नहीं देते। इसी कारण वे कहीं तंगहाली में तो कहीं खुद ही किसी तरह रोजगार की व्यवस्था करते हमारे पदक विजेता खिलाड़ी अक्सर मिल जाएंगे।
आज ओलंपिक में बेहतर प्रदर्शन करने वाली जिन बेटियों पर पूरा देश गर्व कर रहा है, उसी देश की अन्य बेटियां भी अपने भीतर ऐसे ही बहुत सारे सपने छिपाए बैठी हैं। कुछ उन सपनों के लिए अपनों से लड़ रही हैं, तो कुछ समाज से तो कुछ अपने भीतर के डर से, ताकि वे भी खुद को साबित कर सकें कि वे भी देश की बेटी हैं जिनके अपने सपने और अपना वजूद है। हमारे समाज की विडंबना कहें या व्यवस्था कि जिन लड़कियों पर पूरा देश गर्व कर रहा है, उन्हीं की बहनें अपने छोटे-छोटे सपनों और ख्वाहिशों के लिए मार दी जा रही हैं। कुछ समय पहले एक परिवार ने अपनी ही सत्रह साल की लड़की की हत्या कर दी। कारण था लड़की का जींस पहनना।
दरअसल, हम आज भी एक पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था का हिस्सा है, जहां लड़कियों को सपने देखने का अधिकार नहीं है। अगर वह चोरी से छिप कर सपने देखना सीख भी लेती है तो यह व्यवस्था उससे जीने का ही अधिकार छीन लेती है। यह हमारा ही समाज है, जिसमें एक ओर लडकियां हॉकी, बैडमिंटन, डिस्कस थ्रो, तीरंदाजी, मुक्केबाजी, निशानेबाजी और अन्य खेल प्रतियोगिताओं में देश का और अपना नाम कर रही हैं। जमीन से लेकर आसमान तक की ऊंचाइयों को छू रही हैं. वहीं तमाम लड़कियां अपने वजूद को बचाए रखने की लड़ाई लड़ रही हैं। कहते हैं कि व्यक्ति की सफलता को हर कोई देखता है और फिर उससे अपने संबंधों के अनुरूप गर्व भी करता है। देश की जो बेटियां कल तक अकेले गुमनामी में जी रही थीं, आज उनकी एक सफलता ने उनके लाखों जानने वालों का तांता लगा दिया है, लेकिन उनके इस मुकाम तक पहुंचने के संघर्ष को बहुत ही कम लोगों ने देखा-समझ और जाना होगा।
लड़कों की अपेक्षा लड़कियों का संघर्ष तो पैदा होने के साथ मां की कोख से सुरक्षित इस दुनिया में आने के साथ ही आरंभ हो जाता है। फिर ‘लड़की है’ कह कर पूरे समाज में उसे लड़की बनाने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। ऐसे में अगर वह लड़की होकर लड़की जैसी नहीं दिखती तो उसका पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर अस्वीकार आरंभ हो जाता है। लड़की होना और लड़की जैसी नहीं दिखना दरअसल समाज की उन रूढ़ियों का विरोध है, जिनके लिए लड़कियां केवल घर की चारदिवारी हैं। जबकि ये लड़कियां तो सपनों को जीना चाहती हैं, अपने सपनों को पंख देना चाहती हैं, आसमान में उड़ना चाहती हैं।