कृष्ण कुमार रत्तू

बदलती हुई दुनिया में इसकी नई चकाचौंध में जीवन का मिजाज और उसका आचार-व्यवहार जिस तेजी से बदल रहा है, वह अद्भुत है। अनिश्चय से भरी नई संभावनाओं को इस बदलते समाज का नया चेहरा दिख रहा है। इन दिनों इसने समाज की नई भाषा, नया दृष्टिकोण बदलते समाज में नई सामाजिक मान्यताएं और नए व्यावहारिक मूल्यों की एक नई जमीन तैयार हो रही है। जिस तेजी से जीवन पद्धति बदल रही है, उससे लग रहा है कि सब कुछ बदल गया है। इस बदलाव में वह बहुत खुश भी है, जिसे सचमुच बदलना चाहिए। जिन रूढ़िवादी मान्यताओं को हम शताब्दियों से अपने जीवन का हिस्सा मानकर चल रहे हैं, उसे नए जमाने के साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण से नया जीवन जीने का एक नया नजरिया अब हमारी नई पीढ़ी दे रही है।
हमारे यहां शताब्दियों से पुत्री की शादी को कन्यादान की अहमियत के तौर पर बताया जाता है। लेकिन नई पीढ़ी की पढ़ी हुई लड़कियां वैज्ञानिक सोच के साथ आगे बढ़ रही हैं। हाल ही में एक खबर ने इस तरफ पूरे देश का ध्यान आकर्षित किया, जिसमें एक नई बनी आइएएस लड़की ने अपनी शादी में कन्यादान नहीं करने दिया। उसने अपने पिता को कहा कि मैं आपकी बेटी हूं, दान की वस्तु नहीं हूं। इसके अलग इस शादी में सारी अन्य रस्में हुई और इससे पहले आधुनिक शादी को कानूनी मान्यता के लिए अदालत में भी विवाह हुआ, लेकिन कन्यादान नहीं करने दिया गया।

महिला आजादी के एक मौलिक अधिकार वाले इस कदम को महिलाओं को कमतर साबित करने वाली रूढ़िवादी परंपराओं के खिलाफ एक बुलंद आवाज माना गया है। दरअसल, मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले में ऐसा पहली बार हुआ कि शादी में लड़की को वस्तु न समझ कर उसके भावी जीवन की नई दिशा के लिए उसे पिता के घर से विदा किया गया। इसे एक अच्छी पहल और स्वस्थ परंपरा का नमूना माना जा सकता है। हमारे यहां दान की परंपरा में बहुत-सी ऐसी रस्में और पुरानी परंपराएं हैं, जिनके द्वारा बहुत-सी चीजें दान की वस्तु में मान कर अधिकृत की गई हैं। मगर अब समय बदल गया है और मान्यताएं भी बदल रही हैं। बदलती दुनिया का नया युवा समाज नए समाज की नई इबारत लिख रहा है और जीवन के नए मूल्यों को अपनी स्वतंत्रता और अनुकूलता के साथ रूपांतरित कर रहा है।

भारत जैसे विविध संस्कृतियों एवं भाषाओं, रीति-रिवाजों और परंपराओं वाले समाज में इस तरह की परंपराओं और रूढ़ियों को तोड़ना इतना आसान नहीं है। कुछ लोग यह कहेंगे कि पिता ने कन्यादान नहीं किया तो यह शादी मान्य नहीं है, पर क्या वैसी शादी मान्य है जो लड़की की इच्छा के विरुद्ध होती है? उन रूढ़िवादी खाप पंचायतों का क्या होगा जो अलग-अलग धर्म, जाति और झूठी इज्जत के नाम पर अपनी ही बेटियों की हत्या करने का फरमान सुनाते हुए जरा भी शर्म नहीं आती।

असल में अब समय आ गया है जब बेटा-बेटी में कोई फर्क नहीं किया जाए। दोनों के समान अधिकारों की नई जमीन इस नए पढ़े-लिखे समाज में तय की गई है। इस जन जागृति के नए जमाने में विज्ञान की नई सोच ने हमारे रिश्तों की एक नई परिभाषा को एक नई जमीन और एक नए युग की आशा के साथ जीने का एक नया आयाम दिया है। उसमें इस तरह का दान कतई अनुकूल नहीं माना जाता है। यह जमाना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का है और उसमें लड़की की इच्छा अब दान नहीं, बल्कि रिश्तों में बराबरी का हक है। अब लड़की या पुत्री उस नई दुनिया में अपने हौसले के साथ मौजूद है, जो अपने रंगों से खूबसूरत और एक नई दुनिया का चेहरा दिखाने की हिम्मत रखती है।

यों हमारे किसी भी ग्रंथ में लड़की को दान में देने की परंपरा का उल्लेख नहीं मिलता है। पौराणिक कथाओं में विवाह और स्वयंवर जैसे आयोजनों का उल्लेख तो मिलता है, पर दान की परिभाषा लड़की के रूप में है, यह कहीं भी नहीं है। इस तरह की नई घटनाएं ऐसी परंपराओं को जब तोड़ती है तो उससे नई पीढ़ी के नए समाज को एक नई दिशा का आह्वान भी मिलता है।

हमारी सरकारों ने भी पिछले एक दशक में अंग्रेजों के बने हुए सदियों पुराने कानूनों को दफन किया है तो फिर क्यों नहीं कन्यादान जैसे शब्द पुरानी रिवायत को भी दफन कर दिया जाए। विशेष अधिकारों के साथ बराबर के समरसता के संबंधों की नई परिभाषा समाज की नई सूचना के लिए तय की जाए, जिसमें दान जैसी किसी वस्तु का नाम न हो। अलबत्ता एक नई जिंदगी की शुरुआत का एक ऐसा पड़ाव हो, जिसमें शादी एक सामाजिक बंधन और बोझ न हो। एक पिता अपनी बेटी को नई दुनिया के लिए, जो उसकी अपनी दुनिया है, विदा करता है, न कि दान करता है। यही है नए जमाने की नई बयार और नए भारत का भविष्य।