विपिन चौधरी
बरसों पहले जब सुनीता की शादी हुई थी, तब उसके पिता ने गांव में सबसे ज्यादा दान-दहेज देकर उसे ससुराल विदा किया था। चार साल के भीतर उसके दो बच्चे हुए और शादी के पांच साल के भीतर ही उसके पति की दुर्घटना में मृत्यु हो गई। उसे गांव की सड़ी-गली रिवायत के मुताबिक अपने देवर का पल्ला ओढ़ा दिया गया। अपने इस पति से सुनीता को एक लड़का हुआ। लेकिन इस दौरान सास और पति के तानों की वजह से सुनीता का मानसिक संतुलन गड़बड़ा गया और उसके ससुराल वालों ने सुनीता को जबरन मायके भेज दिया।
सुनीता के मायके में स्थितियां पूरी तरह से बदल चुकी थीं। घर का सारा ‘राजपाट’ पिता के हाथों से छूट कर उसके बेटे के हाथ में चला गया था और बेटे के ‘शासन’ में अपनी बहन के लिए कोई जगह नहीं थी। और तो और, सुनीता की मां का अपनी बेटी के प्रति नजरिया भी बदल चुका था। उसे अपने बेटे के बच्चे भाने लगे। ससुराल से वापस आई बेटी को वह पागल और मनहूस कह कर दुत्कारने लगी। सुनीता अपने ही घर में नौकरानी की तरह रहने लगी। इसी दौरान ससुराल में पल रहे सुनीता के बच्चे बड़े हो गए। होश संभालते ही वे अपनी मां को वापस अपने घर ले आए। अब कुछ समय तक तो ठीक रहा, लेकिन कुछ ही दिनों के बाद दोनों बेटे और पति सुनीता और उसकी बेटी की खूब पिटाई करने लगे। एक बार तो उसे इतना पीटा कि बेटी मार खाकर बेहोश हो गई। तब हर रोज की मार-कुटाई का शोर सुनने वाली पड़ोसन ने सलाह दी कि ‘तुम्हें थोड़ा मजबूत बन कर अपने हक की मांग करनी चाहिए।’ तब सुनीता को अपनी गांव की सहपाठिन रानी की याद आई। उसने कहीं से उसका पता खोजा। रानी ने सुनीता और उसकी बेटी को ‘महिला हेल्पलाइन’ का पता देकर उस पर शिकायत करने को कहा। शिकायत दर्ज होने के बाद जब पुलिस घर में आई तो सुनीता की ससुराल के लोगों ने सुधरने का वादा किया। लेकिन सुनीता की परेशानियों का यह स्थायी हल नहीं था।
हमारे समाज में मां-पिता लड़की की जिम्मेदारी उसकी शादी तक ही उठाते हैं। गौर करने की बात यह है कि पिता ने जो धन अपनी बेटी को दहेज में और बाद में गाहे-बगाहे दिया होता है, उसके बजाय अगर वह अपनी बेटी को संपत्ति का हिस्सा, यानी मकान या जमीन दे देता तो सुनीता और उसकी बेटी को सिर पर छत और रोटी का साधन मिल गया होता। मगर बेटी आज भी जन्म लिए घर या स्थान की नहीं, ससुराल की संपत्ति है। आज भी लोगों को अपने बच्चों के बारे में बताते हुए अक्सर यही कहते सुना जाता है कि बेटा तो इंजीनियरिंग या मेडिकल की पढ़ाई कर रहा है और बेटी की शादी कर दी है। आखिर कब तक हम लड़कियों का असली ‘प्रोफेशन’ केवल शादी को मानते रहेंगे!
दूसरी सामाजिक परिस्थिति में मेरे पहचान की एक महिला है, जिसकी पढ़ी-लिखी अच्छी नौकरी वाली बेटी का दो बार तलाक हो चुका है। तीसरी बार जब वह गर्भवती हुई तो उसे ससुराल वालों ने निकाल दिया। लड़की अपने मायके आई तो मां-पिता ने यही कहा कि तेरे ससुराल वाले तुझे कैसे भी रखें, मारें-पीटें कुत्ते-बिल्लियों की तरह रखें, तू अपनी ससुराल लौट जा, वही तेरा घर है। इस स्थिति में लड़की की स्थिति इतनी खराब हो जाती है कि वह परिवार और नाते-रिश्तेदारों के होते हुए भी खुद को लाचार अनाथ महसूस करने लगती है। अपने मायके से भी उस लड़की का पूरी तरह मोहभंग हो चुका है। अब वह अपने मायके वाले शहर में कमरा लेकर रह रही है।
अपनी ही बेटियों को लेकर समाज और लोगों का ढांचा इतना खराब है कि वे जरूरत पड़ने पर विवाहित बेटी को किसी तरह की मदद देने के लिए आगे नहीं आते। मेरी परिचित पढ़ी-लिखी और नौकरीशुदा एक लड़की की शादी तीस पार होने तक नहीं हो पाई। उसे लेकर घर का माहौल इतना खराब रहता है कि पूछिए मत! लड़की हमेशा घर वालों की टेढ़ी नजरों का शिकार बनी रहती है और बिना वजह अपराधबोध में जकड़ी रहती है। दुनिया भर में स्त्रियों के जीवन पर लिखा जा रहा है। इसके बावजूद जमीनी हकीकत ज्यों की त्यों है। ज्यादातर परिवारों के लोग लड़की के जीवन पर पूरी तरह लगाम लगा कर रखते हैं। लड़की अपने आत्मविश्वास में इजाफा नहीं कर सकती। पढ़-लिख कर नौकरी के तौर पर उसे एक ठौर जरूर मिल जाती है जीवनयापन के लिए। लेकिन जब लड़कियां अपने ही मायके और ससुराल में प्रताड़ित होती हैं, तब सुधार के सभी उपकरण बेकार लगते हैं।
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