महेश परिमल
हर पीढ़ी को यह शिकायत होती है कि युवा हमारी बात नहीं सुनते। यह शिकायत न जाने कब से यों ही कायम है। पर यह समझ नहीं आता कि आखिर युवा पीढ़ी सुनती किसकी है और क्या सुनती है! हालांकि युवा पीढ़ी किसी न किसी की सुनती ही होगी! कई लोगों को यह व्यंग्य लग सकता है, पर यह एक गंभीर स्थिति है कि आज के युवा जो कुछ भी सुन रहे हैं, उससे उन्हें कान की तकलीफ बढ़ गई है। उन्हें सुनने में परेशानी हो रही है। कान में सीटी बजने की आवाज आती रहती है। अब यह समझने में हमें भूल नहीं करनी है कि युवा किसी की नहीं सुनते। आज के युवा केवल वही सुनते हैं, जो उन्हें अच्छा लगता है। यही अच्छा लगना उन्हें आज अपनों की आवाज से दूर कर रहा है। समय आ रहा है, जब युवा अपने बच्चों की कोमल, मधुर और प्यारी-प्यारी आवाज सुनने को तरस जाएंगे, क्योंकि इस समय कान के डॉक्टर के पास पहुंचने वाले मरीजों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है। इसमें अधिकतर युवा ही हैं।
आज युवाओं की सुनने की शक्ति लगातार कम हो रही है। इसकी वजह है आॅनलाइन कक्षाएं, मीटिंग और वेब सीरीज। महामारी के दौर में लगी पूर्णबंदी के कारण मोबाइल का उपयोग बढ़ा है। युवा इयरफोन या ईयरबर्ड्स का लगातार उपयोग कर रहे हैं। इससे उनके सुनने की क्षमता में तीस से पचास डेसीबल तक की कमी हो रही है। इसका कारण है कंपनियों द्वारा लगातार आॅनलाइन मीटिंग, सेमिनार, वेबिनार, स्कूलों-कोचिंग की घंटों चलने वाली आॅनलाइन कक्षाएं और मोबाइल पर देखे जाने वाले वेब सीरीज। हर शहर में कान-नाक-गला विशेषज्ञों के पास पहुंचने वाले डेढ़ सौ मरीजों में से पचहत्तर प्रतिशत युवा हैं। इसमें दस प्रतिशत बच्चे भी हैं, जिनकी उम्र पंद्रह साल से कम है।
इन चिकित्सकों के पास बहरेपन का इलाज करवाने वाले युवाओं का कहना है कि वे लंबे समय से मोबाइल फोन में ईयरफोन का इस्तेमाल कर रहे हैं। इसके चलते सुनने में परेशानी आ रही है। मोबाइल के प्रचलन के पहले भी युवाओं को तेज स्वर पसंद था। इसके पहले हम सबने देखा होगा कि किस तरह से आज के युवा तेज स्वरों में बजने वाले अजीब फिल्मी गीतों पर थिरकते रहते थे। कई बार तो किसी वाहन में लगे डीजे की तेज ध्वनि भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाती। वे थिरकने के लिए हमेशा तत्पर रहते। यही तेज ध्वनि ही आज उनकी परेशानी का कारण बन रही है।
आखिर बहरेपन के क्या लक्षण हैँ, हमें इस पर विचार करना चाहिए। कैसे पता लगाया जाए कि हमें कम सुनाई दे रहा है। इसके पहले हमें ध्वनि की फ्रिक्वेंसी को जानना होगा। आम लोग जो एक-दूसरे से बात करते हैं वे पांच सौसे तीन हजार फ्रिक्वेंसी की होती है। सबसे निम्न स्तर में बातचीत करने में ध्वनि की माप करीब चालीस डेसीबेल (ए) होती है, जबकि फुसफुसाहट की माप बीस-पच्चीस डेसीबेल (ए) हो सकती है। इससे भी कम सांस से उत्पन्न ध्वनि की माप करीब बीस डेसीबल (ए) हो सकती है। बहरेपन के लक्षण की बात हो, तो कान में लगातार सिटी की आवाज आ रही हो, धीरे-धीरे बोलने वालों की आवाज हमें कम आ रही हो, कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि सामने वाला केवल मुंह हिला रहा है, हमें कुछ भी पल्ले नहीं पड़ता। इस स्थिति में हमें सचेत हो जाना चाहिए। इस बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति को चक्कर आने, सनसनाहट, नींद न आने, सिर दर्द और कान में दर्द, चिड़चिड़ापन, एंग्जायटी, रक्तचाप बढ़ने आदि की शिकायत होती है।
अब समय आ गया है कि हमें तेज ध्वनि वाले संसाधनों जैसे डीजे, लाउडस्पीकर, प्रेशर हॉार्न आदि से दूर रहना चाहिए।
इस दिशा में अगर ध्यान नहीं दिया गया, तो इसके परिणाम भयंकर हो सकते हैं, क्योंकि तेज संगीत सुनने से हृदय और मस्तिष्क को खतरा हो सकता है। वहीं ईयरफोन पर लंबे समय तक तेज स्वर में संगीत सुनने से कान की नसें मृत हो जाती हैं। जो लोग कॉल सेंटर में काम करते हैं, वे हर घंटे दस मिनट सुनने से अलग रह कर खुली हवा में जाकर लंबी-लंबी सांसें लेना चाहिए। आज की युवा पीढ़ी ही नहीं, बल्कि बच्चे भी शोर के आदी होने लगे हैं। रोते हुए बच्चे को मोबाइल पकड़ा देने वाले पालकों के लिए यह खतरे की घंटी है, क्योंकि इससे बच्चा चुप तो हो जाता है, पर उसकी यह चुप्पी पालकों की परेशानी का कारण बन सकती है। सरकार को भी इस दिशा में सख्त कदम उठाना चाहिए।
जिन्हें तेज ध्वनि पसंद हैं, वे लोग सचेत हो जाएं, क्योंकि अगर वे आज अपनों की आवाजें सुन रहे हैं, पर यही हाल रहा तो कल वे अपने बच्चों की आवाज सुनने के लिए तरस जाएंगे। तब वे नहीं सुन पाएंगे बच्चों की किलकारी, उनकी हंसी या खिलखिलाहट। इसके अलावा, वे नहीं सुन पाएंगे एकांत का संगीत, पक्षियों का कलरव, हवा की सरसराहट, झरने का मधुर संगीत। तब शायद भीतर से खुद के रोने की आवाज भी नहीं सुन पाएंगे। सोचिए कितनी भयावह स्थिति होगी वह!