कुछ समय पहले हरियाणा के जींद जिले से एक सुखद खबर सुनने को मिली कि जैजैवंती गांव के एक शख्स ने अपने घर बेटी के जन्म पर आसपास के पांच गांवों के लोगों को भोज पर बुलाया, कुआं पूजन कराया, डीजे और ढोल का इंतजाम किया। उस नवजात के पिता ने कहा कि बेटा और बेटी में कोई फर्क नहीं है। इससे भी अच्छा यह था कि जैजैवंती गांव का हर बाशिंदा बेटी के जन्म को लेकर खुश है और यहां के लोग कन्या भ्रूणहत्या के खिलाफ जन-जागरण अभियान चला रहे हैं। जैजैवंती गांव लिंगानुपात में सबसे अव्वल स्थान पर रह कर एक लाख रुपए का इनाम भी जीत चुका है।
करीब तीन साल पहले पश्चिम बंगाल के नादिया की रहने वाली एक बारह वर्षीया बच्ची मंपी ने अपनी जान दे दी, ताकि वह अपने पिता और भाई को जीवन दे सके। उसके पिता की आंखों की रोशनी जाने वाली थी और भाई की किडनी खराब हो गई थी। मंपी ने देखा कि उसके घर के लोग पिता और भाई का इलाज समुचित ढंग से नहीं करा पा रहे हैं और आने वाले दिनों में उसके ब्याह में भी काफी पैसे खर्च होने हैं और यह सब कैसे होगा। इस सवाल ने उसे बुरी तरह मथ दिया। उसने सोचा कि उसके मर जाने से आंखें पिता को मिल जाएंगी, किडनी भाई को मिल जाएगी और घरवाले उसकी शादी में मोटी रकम खर्च करने से बच जाएंगे।
सरकार, विभिन्न लोगों और संगठनों की ओर से जनसामान्य को जागरूक करने का प्रयास किया जा रहा है। लोग इस सच को स्वीकार भी कर रहे हैं कि आज भले ही छोटे परिवार की जरूरत है, लेकिन इसकी चाह में कन्या भ्रूण की हत्या अपराध है। इससे लिंगानुपात में असंतुलन आ रहा है। 2013 का वाकया है। कानपुर की दो किशोर बहनों ने गंभीर बीमारी से पीड़ित अपने छोटे भाई के इलाज के लिए लोगों के जूतों की पॉलिश करने का काम किया। हालांकि इससे इलाज का खर्च निकालना संभव नहीं था, लेकिन इसी बहाने समाज को एक संदेश गया कि बेटियां अपने माता-पिता की दिक्कतों में हाथ बंटा रही हैं और उनके लिए सहारा बन सकती हैं।
सवाल यह है कि कन्या भ्रूणहत्या को बढ़ावा कौन दे रहा है, इससे किसे फायदा हो रहा है और इसके लिए असल में जिम्मेदार कौन है! गर्भावस्था के दौरान चिकित्सीय कारण से सोनोग्राफी कराना गलत नहीं है। लेकिन जब सोनोग्राफी करने वाले डॉक्टर से लड़का या लड़की होने के बारे में जानने की कोशिश की जाती है या डॉक्टर बताता है तो अपराध यहीं से शुरू हो जाता है। मूल अपराध तो बच्चे के माता-पिता करते हैं, लेकिन डॉक्टर इसमें बराबर के सहयोगी की भूमिका निभाता है। लेकिन कन्या भू्रणहत्या को रोकना है, लिंगानुपात में निरंतर आ रही असमानता को दूर करना है, तो सबसे पहले हमें समाज को जागरूक करना होगा। वैसे माता-पिता को यह संदेश पहुंचना चाहिए जो एक बेटे की चाहत में आधा दर्जन अजन्मी बेटियों की हत्या कराते हैं। अस्पतालों में सोनोग्राफी और गर्भपात को कानूनी रूप से प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता, क्योंकि आज यह एक चिकित्सीय जरूरत हो गई है। सवाल इसके दुरुपयोग का है।
गर्भपात के मामले में इसके समर्थन में संबंधित लोगों और डॉक्टर का तर्क यह होगा कि ऐसा करना जरूरी था, अन्यथा गर्भवती महिला की जान जा सकती थी। इसलिए सबसे पहले उन्हें जागना होगा जो संतान पैदा करते हैं। उन्हें समझना होगा कि बेटी और बेटे में कोई फर्क नहीं है। पालन-पोषण, पढ़ाई-लिखाई, देखभाल-चिकित्सा से लेकर विवाह तक जितना पैसा बेटी पर खर्च करना पड़ता है, उससे कहीं ज्यादा बेटे पर खर्च होता है। तुर्रा यह कि कोई गारंटी नहीं है कि बेटा पढ़-लिख कर, कहीं अच्छी नौकरी होने के बाद माता-पिता की सेवा करेगा ही, जब दोनों को उसकी जरूरत होगी। अच्छा पढ़-लिख गया तो संभव है कि सात समंदर पार यानी विदेश जाकर अपनी नई दुनिया बसा ले। मंपी और कानपुर की दोनों बहनों का उदाहरण लीजिए, देखिए-समझिए कि बेटियां भावनात्मक स्तर पर माता-पिता और घर-परिवार से कितने गहरे तक जुड़ी होती हैं।
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की विभिन्न अदालतों ने ऐसे कई मुकदमों की सुनवाई करके अपने फैसले सुनाए, जो माता-पिता की ओर से अपने बेटे या बेटों के खिलाफ दर्ज कराए गए थे। इसलिए कि जीवन के अंतिम पहर में बच्चे उनकी उपेक्षा करते हैं, खाना-कपड़ा या खर्च नहीं देते। पेंशन और मकान के किराए के तौर पर आने वाले पैसे छीन लेते हैं और घर से निकाल कर वृद्धाश्रम भेजने की जुगत में रहते हैं। ऐसे मामले हम अक्सर सुनते-देखते होंगे। जबकि बेटियां वरदान हैं, मरहम हैं। वे अपनी ससुराल में रह कर भी माता-पिता से पहले की तरह भावनात्मक रूप से जुड़ी रहती हैं। बीमारी-परेशानी सुन कर दौड़ी चली आती हैं। इसलिए बेटियां ही इस संसार को चलाएंगी, आगे बढ़ाएंगी।